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अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन पर निर्भर होगा बजट

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केंद्रीय बजट में एक अच्छी बात रही पूंजीगत लाभ ढांचे को सहज बनाना। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि चुनिंदा वित्तीय परिसंपत्तियों पर अल्पावधि का पूंजीगत लाभ कर 20 फीसदी की दर से लगाया जाएगा जबकि पहले यह 15 फीसदी की दर से लगाया जाता था। अन्य सभी वित्तीय एवं गैर वित्तीय परिसंपत्तियों पर उसी दर से कर लगेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि शेयर बाजार में अल्पावधि में होने वाले लाभ पर 20 फीसदी की दर से कर चुकता करना होगा। इसके अलावा सभी वित्तीय और गैर वित्तीय परिसंपत्तियों पर होने वाले दीर्घकालिक लाभ पर 12.5 फीसदी की दर से कर लगेगा।

सूचीबद्ध शेयरों पर दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ कर की दर 10 फीसदी थी। लंबी अवधि के कर और अल्पावधि के कर के बीच के अंतर को बढ़ाने वाले कारणों में से एक पूंजी बाजार में दीर्घकालिक निवेश को बढ़ावा देना भी हो सकता है। खासतौर पर परिवारों द्वारा किए जाने वाले निवेश के मामले में।

निवेशकों की कम आय वाली श्रेणी की बात करें तो वित्त मंत्री ने पूंजीगत लाभ के मामले में रियायत की सीमा को 1 लाख से बढ़ाकर 1.25 लाख रुपये कर दिया है। सूचीबद्ध वित्तीय परिसंपत्तियों को अगर एक वर्ष से अधिक अवधि तक रखा गया तो उन्हें दीर्घकालिक माना जाएगा।

गैर सूचीबद्ध वित्तीय और गैर वित्तीय परिसंपत्तियों के मामले में उन्हें दो वर्ष तक धारण करने पर ही उन्हें दीर्घकालिक माना जाएगा। गैर सूचीबद्ध बॉन्ड और डिबेंचर और डेट म्युचुअल फंड पर लागू दर से ही पूंजीगत लाभ कर लगेगा।

बजट के दिन सूचीबद्ध शेयरों पर पूंजीगत लाभ कर बढ़ाने की घोषणा ने शेयर बाजारों को प्रभावित किया। इसके चलते कीमतों में उतार-चढ़ाव देखने को मिला। हालांकि मानक सूचकांकों ने कारोबार समाप्त होते-होते काफी हद तक नुकसान की भरपाई कर ली।

अचल संपत्ति के क्षेत्र में भी चिंता थी क्योंकि पूंजीगत लाभ पर अब 12.5 फीसदी की दर से कर लगेगा और वह भी बिना इंडेक्सेशन लाभ के। पहले इंडेक्सेशन के साथ इस पर 20 फीसदी की दर से कर लगता था। बहरहाल, जैसा कि सरकार ने स्पष्ट किया है, इससे अचल संपत्ति के अधिकांश निवेशकों को लाभ होगा। अगर लाभ का इस्तेमाल 10 करोड़ रुपये तक की कीमत का घर खरीदने या बनाने में किया जाएगा तो कर छूट मिलेगी। अगर चुनिंदा बॉन्ड में 50 लाख रुपये तक का निवेश किया जाए तो भी छूट मिलेगी।

प्रस्तावित बदलाव के दो परस्पर निर्भर लक्ष्य हैं। वित्त मंत्री ने कहा कि मूल विचार है कर ढांचे को सरल बनाना। यह भी उम्मीद है कि सरल कर ढांचा कर संग्रह में सुधार में मददगार साबित होगा। बाजार को बिना कठिनाई के उच्च कर दर से समायोजित हो जाना चाहिए। व्यापक स्तर पर देखें तो अगर अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर बना रहता है, जो कि आय और शेयर कीमतों में तेजी के रूप में देखा जा सकता है तो बाजार को दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

कुछ विकसित देशों में पूंजीगत लाभ पर अधिक कर लगता है। वित्तीय बाजारों से होने वाली आय पर उच्च कर भी प्रगतिशील कदम है। यह समाज का वह तबका है जो पूंजी बाजारों में निवेश करता है और उससे लाभान्वित होता है। बहरहाल, कराधान के मोर्चे पर अनिश्चितता निवेशकों को परेशान कर सकती है।

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यह भी कहा कि सरकार अगले छह महीनों में आयकर अधिनियम 1961 की समीक्षा करेगी। समीक्षा के बाद पूंजीगत लाभ कर ढांचे में और बदलाव आ सकता है। ऐसे में बेहतर होगा कि एक प्रत्यक्ष कर संहिता लाने पर विचार किया जाए ताकि प्रत्यक्ष कर ढांचे को स्थिरता और सुनिश्चितता प्रदान की जा सके।

 

संतुलन साधने वाला बजट

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2024-25 का बजट पेश करते समय उस राजनीतिक संदर्भ का जिक्र नहीं किया, जिसमें उनके मंत्रालय को बजट तैयार करना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली इस नई सरकार के समक्ष पहले की तुलना में अधिक चुनौतियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ कट्टर समर्थकों से चुनाव में सरकार को मिले कड़े संदेश के बाद उस पर दबाव काफी बढ़ गया था।

सरकार चलाने के लिए जनता दल यूनाइटेड और तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) पर निर्भरता बढ़ने से इन दोनों दलों की मांगें पूरी करने का दबाव भी बढ़ गया था।
मगर सीतारमण एवं उनकी टीम ने इन राजनीतिक विवशताओं और सरकार की प्राथमिकताओं, विशेषकर राजकोषीय मजबूती के बीच संतुलन साध कर सराहनीय कार्य किया है।

बजट का एक बड़ा हिस्सा बिहार और आंध्र प्रदेश से जुड़ी परियोजनाओं को समर्पित था। परंतु, सीतारमण ने 2021 के बजट में जिस राजकोषीय मजबूती का मार्ग तैयार किया था, उसे कोई बड़ी क्षति नहीं पहुंची है। इस साल फरवरी में लेखानुदान में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.1 प्रतिशत तक सीमित करने का लक्ष्य रखा गया था।

मगर बजट में इसमें किसी तरह का इजाफा करने के बजाय इसे संशोधित कर 4.9 प्रतिशत कर दिया। इतना ही नहीं, वित्त मंत्री ने वादा किया कि अगले वर्ष तक राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.5 प्रतिशत से नीचे रह जाएगा। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से मिले 2.1 लाख करोड़ रुपये के भारी भरकम लाभांश की मदद से बजट आंशिक रूप से राजकोषीय समझबूझ के मोर्चे पर बेहतर साबित हुआ। फरवरी में अंतरिम बजट में लाभांश के अनुमान से सरकार को लगभग दोगुना रकम मिली।

राजकोषीय मोर्चे पर संयम जरूर दिखाया गया है मगर इससे व्यय की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होने दी गई है। पूंजीगत व्यय को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आई है। राजस्व व्यय में बढ़ोतरी कुल व्यय की तुलना में थोड़ी कम रही है। दिलचस्प है कि पूंजीगत व्यय में हुई बढ़ोतरी का कुछ हिस्सा राज्यों को भी आवंटित किया जाएगा।

हालांकि, यह रकम राज्यों को इस शर्त पर दी जाएगी कि वे आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले सुधार करेंगे। हालांकि, इससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच पहले से चला रहा तनावपूर्ण संबंध और बिगड़ जाएगा।

दूसरी तरफ, सुधार को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार के पास सीमित विकल्प हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार इन सभी विकल्पों को आजमाएगी। सरकार उन मामलों में रकम खर्च करने में सतर्क रही है जहां सॉवरिन या सरकार की गारंटी पर्याप्त होती है। सरकार राज्य सरकारों को साथ लाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन का सहारा लेती रही है। ऐसा सूझ-बूझ वाला वित्तीय प्रबंधन सब्सिडी के आंकड़ों में भी साफ तौर पर परिलक्षित होता है।

सरकारी खरीद में कमी लाने से खाद्य सब्सिडी मद में व्यय कम हुआ है। भारत में राजकोषीय गणित तैयार करने में खाद्य सब्सिडी एक बड़ी समस्या रही है मगर अब जीडीपी के प्रतिशत के रूप में इसकी हिस्सेदारी धीरे-धीरे कम हो रही है। रोजगार की कमी एक अन्य बड़ी राजनीतिक बाधा रही है मगर इससे कभी सावधानी से नहीं निपटा गया।

उदाहरण के लिए बजट में ‘इंटर्नशिप’ योजना की घोषणा पूरी तरह सोच-समझकर नहीं की गई है। अगर यह योजना मूल स्वरूप में ही लागू हुई तो इससे मानव संसाधन नीतियों एवं निजी क्षेत्र में उथल-पुथल मच जाएगी। इससे संरक्षण एवं अक्षमता बढ़ जाएगी। इन पर दोबारा विचार करने की आवश्यकता आन पड़ सकती है।

बाजार ने बजट पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। वित्त मंत्री ने दीर्घ अवधि के पूंजीगत लाभ पर कर 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12.5 प्रतिशत कर दिया है और लघु अवधि के पूंजीगत लाभ पर कर भी 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया है। वायदा एवं विकल्प कारोबार लेनदेन पर कर दरें बढ़ा दी गईं। हालांकि बाजार की प्रतिक्रिया से इतर इन बदलाव के आधार मजबूत हैं।

बजट में संरक्षणवादी नीति में आंशिक बदलाव करने की भी घोषणा हुई है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। लगभग 50 वस्तुओं पर सीमा शुल्क में कमी की गई है। सीतारमण ने सीमा शुल्क को तर्कसंगत बनाने का भी वादा किया है। कम एवं स्थिर शुल्कों की बदौलत ही भारत वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था का हिस्सा बन सकता है।

करों में बदलाव पर कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं इसलिए आई हैं कि यह स्पष्ट नहीं है कि भविष्य में प्रत्यक्ष करों की राह कैसी होगी। अगले वर्ष राजकोषीय घाटे पर बजट में उत्साहजनक वादा जरूर किया गया है मगर घाटे एवं कर्ज पर लक्ष्य अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। इस पर स्थिति साफ होती तो काफी मदद मिली होती।

विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए टिकाऊ विकास की राह

मुख्य आर्थिक सलाहकार (CEA) वी अनंत नागेश्वरन और वित्त मंत्रालय की उनकी टीम द्वारा तैयार आर्थिक समीक्षा (Economic Survey 2024) से एक स्पष्ट संकेत नजर आता है। वह यह कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी से मजबूती से उबर चुकी है लेकिन विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए टिकाऊ वृद्धि के लिए निरंतर हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी तथा कई उभरती आर्थिक और नीतिगत चुनौतियों का सामना करना होगा।

महामारी के बाद भारत ने उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल की है और इस दौरान उसे वित्तीय स्थिरता के साथ भी समझौता नहीं करना पड़ा। अब सबकी नजरें केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर होंगी जो मंगलवार को नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का पहला बजट (Budget 2024) पेश करेंगी। माना जा रहा है कि इस बजट में अन्य बातों के अलावा देश की अर्थव्यवस्था को लेकर मध्यम अवधि का खाका पेश किया जाएगा।

वृद्धि के नजरिये से देखें तो 2023-24 में देश का सकल घरेलू उत्पाद, कोविड के पहले वाले वर्ष यानी 2019-20 की तुलना में 20 फीसदी अधिक था। इसका अर्थ यह हुआ कि हमने 2019-20 से 2023-24 तक 4.6 फीसदी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि हासिल की।

समीक्षा में कहा गया है कि देश का मौजूदा सकल घरेलू उत्पाद वित्त वर्ष 24 की चौथी तिमाही में महामारी के पहले के स्तर के करीब था। यह भी अनुमान जताया गया है कि देश की अर्थव्यवस्था चालू वर्ष में 6.5 से 7 फीसदी की दर से विकसित होगी। यह दर रिजर्व बैंक के 7.2 फीसदी के अनुमान से कम है।

राजकोषीय स्थिति में भी महामारी के समय से अब तक काफी सुधार हुआ है। केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा जो पिछले वर्ष सकल घरेलू उत्पाद के 6.4 फीसदी था, वह वित्त वर्ष 24 में कम होकर 5.6 फीसदी रह गया।

कर संग्रह में वृद्धि तथा रिजर्व बैंक की ओर से अनुमान से अधिक स्थानांतरण जहां चालू वर्ष की राजकोषीय स्थिति में राहत प्रदान करेगा, वहीं बढ़ा हुआ सरकारी कर्ज चिंता का विषय है तथा उस पर नीतिगत ध्यान देने की आवश्यकता है।

महामारी के बाद की अवधि में वृद्धि सरकार के पूंजीगत व्यय से अधिक संचालित रही है। वित्त वर्ष 24 में सरकार का पूंजीगत व्यय पिछले वर्ष की तुलना में 28.2 फीसदी बढ़ा और वह वित्त वर्ष 20 में दर्ज स्तर का करीब तीन गुना रहा। बहरहाल समीक्षा में इस बात को उचित ही रेखांकित किया गया है कि अब सरकार के बाद इसे आगे बढ़ाने का काम निजी क्षेत्र का है।

निजी क्षेत्र के निवेश में सुधार के आरंभिक संकेत नजर आ रहे हैं लेकिन इस रुझान को बरकरार रखना होगा। जैसा कि समीक्षा में कहा गया है, भविष्य की वृद्धि कई कारकों पर निर्भर करेगी जिनमें भू-राजनीतिक विभाजन और विभिन्न देशों के बीच बढ़ता अविश्वास शामिल है। उदाहरण के लिए 2023 में करीब 3,000 व्यापार प्रतिबंध लागू किए गए। इसके अलावा नीतिगत योजना में उभरती तकनीकों को शामिल करने का भी वृद्धि और विकास पर असर होगा।

अल्प से मध्यम अवधि में जिन क्षेत्रों में नीतिगत ध्यान देने की आवश्यकता है उनमें उत्पादक रोजगार तैयार करना, कौशल की कमी को दूर करना, छोटे और मझोले उपक्रमों को प्रभावित करने वाले गतिरोधों को दूर करना, असमानता से निपटना और पर्यावरण के अनुकूल बदलाव का प्रबंधन शामिल हैं।

बहरहाल यह ध्यान देने वाली बात है कि इनमें से कुछ मुद्दे ज्ञात हैं लेकिन दिक्कत यह है कि भारत उन्हें भलीभांति नहीं हल कर सका। इस बात ने समय के साथ वृद्धि और विकास संबंधी नतीजों को प्रभावित किया। समीक्षा में लंबी अवधि के लिए भी ऐसी नीतियों को भी रेखांकित किया गया जो लंबे समय के लिए कारगर हैं। उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्र की दिक्कतें दूर करना, निजी निवेश को बढ़ावा देना और राज्य की क्षमता विकसित करना।

सरकार के नए कार्यकाल की शुरुआत मध्यम से लंबी अवधि की वृद्धि रणनीति के समायोजन का सबसे बेहतर समय है। यह देखना होगा कि सरकार इन सुझावों पर किस प्रकार प्रतिक्रिया देती है। समीक्षा में चीन को लेकर भी कुछ अहम सवाल उठाए गए हैं जिन पर नीति निर्माण के दौरान बहस होनी चाहिए।

 

इलेक्ट्रिक वाहनों में निवेश

भारत का 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी करने तथा 2070 तक उत्सर्जन को विशुद्ध शून्य तक लाने का लक्ष्य, काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि हम इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को किस हद तक अपना पाते हैं। हम पहले ही खुद को दुनिया में इलेक्ट्रिक व्हीकल के सबसे तेज बढ़ते बाजार के रूप में स्थापित कर चुके हैं।

देश की स्थिति को और मजबूत करने के लिए भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार ने हाल ही में ई-मोबिलिटी के लिए शोध एवं विकास रणनीति को लेकर एक रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में ईवी को व्यापक तौर पर अपनाने की बात कही गई और यह भी कहा गया कि हमें स्वदेशी ऊर्जा भंडारण व्यवस्था, चार्जिंग ढांचे के लिए नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन प्रणाली और टिकाऊ सामग्री और रिसाइक्लिंग के तरीके तलाशने होंगे।

फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के आंकड़ों के मुताबिक 2023-24 में देश में ईवी की सालाना बिक्री 17.5 लाख वाहनों की थी जो इससे पिछले साल की तुलना में 40 फीसदी ज्यादा थी। ईवी बाजार में वृ़द्धि का श्रेय नैशनल ऑटो पॉलिसी 2018 और नैशनल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन प्लान 2020 को दिया जा सकता है।

इसके अलावा सरकार की प्रमुख योजना फास्टर एडॉप्शन ऐंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ (हाइब्रिड ऐंड) इलेक्ट्रिक व्हीकल्स या (फेम) 2, जो इस साल के आरंभ में समाप्त हुई, उसमें दोपहिया और तिपहिया वाहनों की श्रेणी को इलेक्ट्रिक बनाने पर जोर दिया गया। ये दोनों श्रेणियां इस योजना के तहत लक्षित वाहनों में 98 फीसदी वाहनों को कवर करती हैं। देश की सड़कों पर इन्हीं दोनों श्रेणियों के वाहनों का राज है।

ईवी 30 एट 30 के लक्ष्य के तहत भारत की कोशिश है कि 2030 तक देश में निजी रूप से पंजीकृत होने वाले वाहनों में ईवी की हिस्सेदारी 30 फीसदी, बसों में 40 फीसदी, वाणिज्यिक कारों में 70 फीसदी और दोपहिया तथा तिपहिया वाहनों में 80 फीसदी कर दी जाए।

बहरहाल इन वाहनों का महंगा होना और चार्जिंग के लिए अपर्याप्त ढांचों का होना अभी भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। इसके अलावा उत्पादन की बात करें तो ई-मोबिलिटी की मूल्य श्रृंखला आयात पर बहुत अधिक निर्भर करती है। घरेलू ईवी निर्माण अभी भी वाहनों की असेंबलिंग तक सीमित है और अधिकांश कलपुर्जों बैटरी और इलेक्ट्रॉनिक चिप आदि के लिए हमारे पास घरेलू क्षमता नहीं है।

कमजोर आपूर्ति श्रृंखला के कारण घरेलू कलपुर्जा निर्माण के लिए हम तकनीक और सामग्री के स्तर पर बहुत हद तक चीन पर निर्भर करते हैं। ई-मोबिलिटी क्षेत्र में आयात पर निर्भरता कम करने के लिए वाहन क्षेत्र में घरेलू शोध क्षमताओं को मजबूत करना होगा। उदाहरण के लिए फिलहाल 70 फीसदी लीथियम हम चीन से आयात करते हैं और रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि हमें सोडियम-आयन, लीथियम-एयर, एल्युमीनियम-एयर और लीथियम-सल्फर जैसे विकल्पों से नवाचार करने की कोशिश करनी चाहिए। ये लीथियम-आयन बैटरी के विकल्प बन सकते हैं। रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि ई-मोबिलिटी में 30-34 अहम क्षेत्रों में शोध एवं विकास के लिए करीब 1,200 करोड़ रुपये के निवेश की आवश्यकता है।

फंडिंग के लिए विभिन्न सरकारी विभाग जिनमें राष्ट्रीय शोध फाउंडेशन, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय और भारी उद्योग मंत्रालय आदि सभी शामिल हैं, साथ आ सकते हैं। शोध एवं विकास में निवेश सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों से आ सकता है। कुछ परियोजनाओं का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है जिन्हें आजमाया जा सकता है।

इसमें लीथियम आयन बैटरी के लिए उन्नत तरल इलेक्ट्रोलाइट्स पर शोध, ईवी के लिए डायनामिक चार्जिंग व्यवस्था, बेहतर फ्यूल सेल क्षमता और फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए तरल ऑर्गेनिक हाइड्रोजन कैरियर स्टोरेज तकनीक शामिल हैं। ईवी के निर्माण के पीछे बुनियादी विज्ञान में निवेश से भारत कुछ वर्ष बाद इस क्षेत्र की मूल्य और आपूर्ति श्रृंखला में वैश्विक कद हासिल कर सकता है। बहरहाल, जब तक हम बिजली के लिए प्रमुख रूप से ताप बिजली पर निर्भर रहेंगे तब तक कुल मिलाकर पर्यावरण संबंधी लाभ सीमित ही रहेंगे।

राजकोषीय मजबूती और केंद्र-राज्य कोष प्रबंधन पर जोर

 

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अगले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के तीसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश करेंगी। बजट से अपेक्षाएं हैं कि करों को युक्तिसंगत बनाने, पूंजीगत व्यय बढ़ाने और रोजगार तैयार करने के मुद्दे इसमें अहम रहेंगे। यह संभव है कि पूर्ण बजट अंतरिम बजट के साथ तालमेल वाला होगा और मध्यम अवधि में सरकार की ओर से एक खाके की उम्मीद की जा सकती है।

समग्र राजकोषीय प्रबंधन की बात करें तो फिलहाल जो हालात हैं, महामारी के झटके का सामना करने के बाद केंद्र सरकार लगातार राजकोषीय मोर्चे पर घाटा कम करने की राह पर बढ़ रही है। वर्ष 2023-24 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 5.6 फीसदी के बराबर रहा जो 5.9 फीसदी के बजट अनुमान से कम है।

अंतरिम बजट के अनुसार सरकार इस वर्ष राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 5.1 फीसदी तक सीमित रख सकती है। फिलहाल सारा ध्यान जहां केंद्र सरकार पर है, वहीं वृहद आर्थिक प्रबंधन के लिए सबसे अहम बात है सामान्य सरकारी वित्त। स्पष्ट कहा जाए तो अधिकांश इजाफा केंद्रीय स्तर पर हुआ है लेकिन राज्यों को भी अपनी व्यवस्था सही रखने की जरूरत है।

इस संदर्भ में राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान का एक नया कार्य पत्र जो महामारी के बाद राज्यों की स्थिति की पड़ताल करता है, उसमें कहा गया है कि एक ओर जहां महामारी का असर राज्यों की वित्तीय स्थिति पर उतना नहीं पड़ा है जितना केंद्र सरकार की स्थिति पर पड़ा है तो वहीं राजकोषीय मजबूती की प्रतिबद्धता कमजोर हुई है।

महामारी के दौरान मामूली गिरावट के बाद राज्यों का कर राजस्व 2023-24 में बढ़कर जीडीपी के 7.8 फीसदी के बराबर हो गया। इस बीच राज्यों का पूंजीगत व्यय भी बढ़ा और उसमें एक वर्ष में 36 फीसदी का इजाफा देखने को मिला। बहरहाल पूंजीगत व्यय में इजाफे की भरपाई मोटे तौर पर अतिरिक्त उधारी से की गई। इसमें केंद्र सरकार का 50 वर्षों का ब्याज रहित ऋण भी शामिल है। ब्याज भुगतान भी व्यय का एक बड़ा हिस्सा है जो शायद अन्य खर्चों को पीछे छोड़ रहा है।

व्यापक आर्थिक प्रबंधन के नजरिये से देखें तो यह बात ध्यान देने लायक है कि शोध दर्शाते हैं कि आर्थिक विकास और राज्यों की राजस्व प्राप्तियों के बीच संबंध हैं। उच्च या संतुलित आर्थिक विकास वाले राज्यों मसलन कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र में कुल राजस्व में उनकी कर प्राप्तियों की हिस्सेदारी दो तिहाई तक रही है।

इसके उलट पिछड़े राज्यों में मिलेजुले रुझान देखने को मिले और 2022-23 में उन्होंने अपने राजस्व का केवल 44 फीसदी खुद जुटाया। इसका मतलब वे बाहरी मदद और उधारी पर अधिक निर्भर हैं। बहरहाल पूंजीगत व्यय और विकास संबंधी परिणामों के बीच का रिश्ता बहुत सीधा-सपाट नहीं है। प्रमाण बताते हैं कि पूंजीगत व्यय और सामाजिक व्यय का विकास संबंधी परिणामों पर अधिक प्रभाव नहीं है।

यह संभव है कि इन क्षेत्रों में होने वाला व्यय शायद इतना अधिक नहीं हो कि वह बहुत अधिक प्रभाव छोड़ सके। ऐसे में राज्यों को बेहतर परिणाम के लिए सही क्षेत्र में व्यय करना होगा। इससे राजस्व संग्रह सुधारने और केंद्रीय मदद पर निर्भरता कम करने में भी मदद मिलेगी।

आंकड़े बताते हैं कि राज्यों ने पिछले वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान की तुलना में चालू वर्ष में राजकोषीय घाटे के लिए अधिक बजट रखा है। यह बात भी रेखांकित करने लायक है कि केंद्र सरकार ने राजकोषीय मजबूती के लिए अहम प्रयास किए हैं वह भी बिना पूंजीगत व्यय में कमी लाए।

राज्यों को भी राजस्व संग्रह में सुधार के साथ अपने राजकोषीय घाटे को कम करने का प्रयास करना चाहिए। केंद्र और राज्य दोनों ही स्तरों पर सरकार की वित्तीय स्थिति को तत्काल बेहतर बनाने की आवश्यकता है। ऐसे में राजस्व बढ़ाने और फालतू व्यय कम करने के प्रयास करने होंगे। जीडीपी के 80 फीसदी तक हो चुके सार्वजनिक ऋण को कम करने के लिए ऐसा करना जरूरी है।

 

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