55 साल की दोस्ती का वास्ता…काश! तुम लौट आते
जरा इस तस्वीर को देखिए…क्या ये उम्र थी यूं दोस्ती तोड़ कर चले जाने की। उसे 55 साल की दोस्ती का वास्ता देकर मैं बुला लेना चाहता हूं, इस उम्र में भी क्या कोई अकेला छोड़कर जाता है…। इतना कहकर नरेंद्र पंजवानी फफक पड़े। कुछ देर बाद सामान्य हुए तो मिथिलेश जी के साथ बिताए पलों को साझा किया। हिंदी फिल्म जगत और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर सक्रिय पंजवानी कहते हैं कि चारबाग में उनके घर के पीछे ही एक सिंधु स्कूल था, जहां हमारी प्राइमरी शिक्षा पूरी हुई। मेरा घर नाका हिंडोला में था। प्राथमिक स्कूल के बाद हमारी पढ़ाई अलग-अलग स्कूलों में हुई, लेकिन मिलना रोज होता था। 1975 में रंगकर्म की दुनिया में हमने साथ-साथ प्रवेश किया। मैं सिंधी समाज लखनऊ में सांस्कृतिक सचिव हुआ तो उन्होंने मेरे साथ एक सिंधी नाटक किया। हमारी एक सृष्टि संस्था हुआ करती थी, टेसू नामक नाटक में मेरा निर्देशन, अभिनय मिथिलेश का था। अतिक्रांत लखनऊ और चाणक्य आदि नाटकों में हमने साथ काम किया। फिर मैं 22 साल के लिए विदेश चला गया। जब 2003 में लौटा तो गोरेगांव स्थित उनके घर पर ही रहा पांच-छह महीना। वो ऐसे थे कि मेरी आंखों से ही मेरी परेशानी को भांप लेते थे। बिना कहे, बिना मांगे उन्होंने मेरी बहुत मदद की। ऐसी न जाने कितनी यादें छोड़ गए हैं वो, जिनके सहारे ही जिंदगी काटनी है।
अभी और जीने की ख्वाहिश लिए चले गए
भारतेंदु नाट्य अकादमी की वरिष्ठ रंगकर्मी चित्रा मोहन कहती हैं कि 90 के दशक में मिथिलेश और वे एक ही टीम का हिस्सा थे। उनका सबसे चर्चित नाटक था शनिवार-रविवार, जिसके 40 से ज्यादा शो हम कर चुके थे। मेरे पति चंद्रमोहन निर्देशक थे। भाई मिथिलेश गम्मत के रोल में थे। फिल्म डर में कि…कि..किरण वाले जिस डायलाग को हिंदी सिने जगत में काफी सुर्खियां मिलीं, उससे कई वर्षों पहले मिथिलेश ने स…स…सुमन बोलकर लखनऊ समेत समूचे रंग जगत को अपना फैन बना लिया था। कहती हैं कि कुछ दिन पहले जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि चित्रा चाहता हूं कि उम्र बढ़ जाए और फिर से लखनऊ आऊं और एक बार फिर से गम्मत की भूमिका करूं। हम शनिवार-रविवार के मंचन की योजना बना रहे थे। उन्होंने कहा कि थोड़े से बदलाव के साथ हम लोग ये नाटक फिर करेंगे।
जिन्हें हम गंभीर समझते, उनमें भी हास्य ढूंढ लेते थे
वरिष्ठ रंगकर्मी व बीएनए के पूर्व निदेशक अरुण त्रिवेदी कहते हैं कि एक कसक दिल में रह गई कि उनके साथ काम करने का मौका नहीं मिला। हालांकि, मैं सौभाग्यशाली हूं हमारे रंगकर्मी मित्रों की मंडली में उनका नाम भी शामिल है। उनके नाटकों को हमने खूब देखा। शनिवार-रविवार, बुर्जुआ जेंटलमैन जैसे नाटकों में उनका कॉमिक अंदाज दिखता है। कभी चाय की दुकान तो कभी किसी सभागार में उनके साथ पूरी की पूरी मित्र मंडली की मौजूदगी, उनके बीच-बीच में शिगूफा छोड़ने का अंदाज, हर छोटी-बड़ी बात को हास्य की चाशनी में लपेट कर रख देना, गंभीर बातों में भी हास्य ढूंढ निकालना, उन्हें हास्य का बादशाह साबित करने के लिए काफी है।
लखनऊ से नाता : 99 लुकमानगंज में सब्जीमंडी के पास वाला वो मकान
चारबाग स्थित 99 लुकमानगंज में सब्जी मंडी के पास वाला वो मकान है मिथिलेश चतुर्वेदी का…। इलाके में किसी से भी पूछ लीजिएगा, ताऊ जी को हर कोई जानता है। ये कहना था मुंहबोली भतीजी प्रिया का। कहती हैं कि हम उनके दूर के रिश्तेदार हैं, लेकिन अहसास कभी नहीं हुआ इसका। जब भी वे यहां आते साथ ही निकल जाते थे सब्जी लेने। जून के पहले सप्ताह में आए थे, जल्द आने का वादा कर गए थे। अब वो नहीं आएंगे, यकीन नहीं हो रहा।
बेटी ने सोशल मीडिया पर की निधन की पुष्टि
चारू और निहारिका उनकी दो बेटियां हैं। एक बेटा आयुष है, जो निजी क्षेत्र में नौकरी करता है। चारू की शादी हो चुकी है, वो आगरा में रहती है। निहारिका चतुर्वेदी रंगमंच, अभिनय जगत से जुड़ी हैं। प्रोड्यूसर हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर पिता मिथिलेश चतुर्वेदी के निधन की पुष्टि की।
आशा खबर / शिखा यादव