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कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर और परंपरा को जोड़ने की पहल, अदाकारी में गोविल बने मैन ऑफ द मैच

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धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की सदियों से अपनी एक पीड़ा है। कभी तुर्क और मुगलों का भी कहर झेला है, हजारों मासूम मारे गए। लोगों ने यहां जबरन धर्म परिवर्तन का खेल खेला है। हजारों मंदिर तोड़े गए। अब  दुनिया को बताया जा रहा है कि कश्मीर और कश्मीरी एक बार फिर मुख्य धारा में लौट आए हैं। फिल्म ‘हुकुस बुकुस’ में आज के कश्मीर के माहौल के साथ पिता पुत्र के भावनात्मक रिश्ते को बहुत ही गहराई से पेश किया गया है। साथ ही इस फिल्म को धर्म  और क्रिकेट के साथ कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर और परंपरा को  जोड़ने की एक पहल की गई है।

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कश्मीर में हालात सामान्य होने के बाद कश्मीरी पंडित राधेश्याम  खुद को अपनी सांस्कृतिक धरोहर और परंपरा से जोड़ने के लिए एक मंदिर की स्थापना करना चाहते हैं, लेकिन मंदिर के लिए उन्हें नौ साल पहले जो जमीन मिली थी उस पर अब मॉल बनने जा रहा है। पंडित राधेश्याम, कृष्ण के बहुत बड़े भक्त हैं तो वही उनका बेटा अर्जुन क्रिकेटर है जो सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का भगवान मानता है।  मंदिर की जगह के लिए जब पंडित राधेश्याम स्थानीय तहसीलदार से मिलते हैं तो वहां उनको जवाब मिलता है कि नौ साल से मंदिर का निर्माण नहीं हो पाया, इसलिए वह जगह अब मॉल बनाने के लिए दे दी गई है। पंडित राधेश्याम स्थानीय विधायक से जब मंदिर की जगह के लिए बात करते हैं तो विधायक क्रिकेट टूर्नामेंट कराने का सुझाव रखते हैं। अगर उनके बेटे की टीम जीत गई जीत गई तो मंदिर की जमीन उनकी। जाहिर सी बात है कि अर्जुन की ही टीम क्रिकेट मैच जीतती है और पंडित राधेश्याम को मंदिर बनने के लिए जगह मिल जाती है।

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दरअसल, असल मुद्दा फिल्म में यह है कि कश्मीर से धारा 370 हटने के बाद वहां पर माहौल कैसा है। जिस  तरह से  दुनिया को बताया जा रहा है कि कश्मीर और कश्मीरी एक बार फिर मुख्य धारा में लौट आए हैं, इसमें कितनी सच्चाई है। जिन बच्चों के हाथ में बंदूक थी  उनके हाथ में अब  बैट और बल्ला आ गया है। और, एक नए कश्मीर का निर्माण हो रहा है। एक जमाने में  पंडित राधेश्याम को भी क्रिकेट से बहुत प्रेम था, लेकिन जब उन्होंने शेरे-ए-कश्मीर स्टेडियम में वेस्टइंडीज और इंडिया के मैच के बीच पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे सुने तभी से उनका क्रिकेट से मोह भंग हो गया और अपने बेटे को  सलाह देते हैं कि क्रिकेटर नहीं, पंडित बनना है। उनका बेटा अर्जुन कहता है कि पंडित क्या बनना है, वह तो पंडित ही है। उसके पिता समझाते हैं कि पंडित कुल में जन्म लेने से कोई पंडित नहीं होता है, उसके लिए विद्वान होना पड़ता है। लेकिन जब क्रिकेट खेलने की बात आती है तो वह खुद ही अपने बेटे अर्जुन को क्रिकेट खेलने के लिए प्रेरित करते हैं।

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इस फिल्म के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि एक पिता अपने बच्चों के बारे में कभी भी बुरा नहीं सोचते हैं। कहानी में एक मोड़ ऐसा आता है जब पिता और बेटे के रिश्ते में भी खटास आ जाती है। अर्जुन को लगता है कि उसके पिता ने उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। और, कुरुक्षेत्र में अर्जुन की तरह युद्ध लड़ने से मना कर देता है। पंडित राधेश्याम अपने बेटे को समझाते हैं कि तुमने हर पल सचिन तेंदुलकर को अपना भगवान माना है।  एक बार भगवान कृष्ण को याद करके देखो। और, जब अर्जुन भगवान कृष्ण को याद करके हाथ में बल्ला उठता है तो हारा हुआ मैच जीत जाता है। इस फिल्म के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि जिंदगी का सारा सार भागवत गीता में छुपा है, जिसने भगवत गीता को समझ लिया वह अपने जीवन को समझ लिया।

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कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनी यह पहली ऐसी फिल्म है जिसमें आतंकवाद नहीं, बल्कि भाईचारे की बात की गई है। रणजीत सिंह मशियाना की लिखी कहानी सिर्फ इतनी है कि मंदिर की जमीन के लिए क्रिकेट मैच का आयोजन होता है और तय यह होता है जिसकी टीम जीतेगी जमीन उसकी होगी। लेकिन विपुल पटेल और जगतार एस कलवाना की पटकथा इंटरवल से पहले थोड़ी सी कमजोर पड़ती है, लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म अपनी मजबूत पकड़ बनती है। इंटरवल के बाद की पूरी कहानी क्रिकेट मैच पर ही, लेकिन मैच को देखने में रोमांच बना रहा है। फिल्म के निर्देशक विनय भारद्वाज, सौमित्र सिंह ने पिता-पुत्र के भावनात्मक दृश्य को परदे पर ऐसा पेश किया है कि वह सीन देखने के बाद आंखें नम हो जाती हैं।  फिल्म की कहानी कश्मीर की पृष्ठभूमि पर है,लेकिन कश्मीर के खूबसूरत लोकेशन को सिनेमैटोग्राफर हेमंत गुलशन चौहान उतनी खूबसूरती के साथ अपने कैमरे में कैद नहीं कर पाए। देवेन्द्र मुर्देश्वर का संपादन इंटरवल से पहले थोड़ा सा सुस्त है। इस फिल्म में एक ही गीत ‘जीत का जयकारा’ है जिसे संजय मासूम ने लिखा है। इस गीत को संगीतबद्ध पुनीत दीक्षित ने किया है और उन्होंने खुद ही गाया है।

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इस फिल्म में अरुण गोविल ने कश्मीरी  पंडित राधेश्याम की भूमिका निभाई है। एक पिता की भूमिका उन्होंने बहुत ही बेहतरीन तरीके से निभाया है। जब वह अपने बेटे को अंडे खाते देख लेते है तो उन्हें लगता है कि कहीं ना कहीं उनकी परवरिश में कोई कमी रह गई होगी।  बेटे को डांटने के बजाय खुद को सजा देते हैं। अरुण गोविल का फिल्म का यह बहुत ही यादगार सीन है। अर्जुन की भूमिका में दर्शील सफारी का प्रयास अच्छा रहा है। गोरी की भूमिका में  नायशा खन्ना इस फिल्म में एक तरह से एकलव्य की भूमिका में दिखी हैं, क्रिकेट मैच को जिताने में उनकी भूमिका अच्छी रही है। स्थानीय विधायक के रूप सज्जाद डेलाफ्रूज, कोच खालिद की भूमिका में  मीर सरवर और  कोच विक्रम राठी की भूमिका में गौतम विग ने  अपनी अदाकारी से अच्छा प्रभाव छोड़ा है। ऐसी फिल्मों को अगर सही तरीके से प्रमोट किया जाए तो अधिक से दर्शकों तक पहुंच सकती हैं, लेकिन ऐसी फिल्मों के साथ बिडंबना यही होती है कि फिल्म के मेकर फिल्मों को ढंग से प्रमोट नहीं कर पाते हैं।

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