विपक्षी गठबंधन न सिर्फ केंद्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं, बल्कि केंद्र की सत्ता में आने के बाद इस वादे को पूरा करने की घोषणा कर रहे हैं। इसके साथ ही कभी महिला आरक्षण में ओबीसी कोटा की मांग को दरकिनार करने वाली कांग्रेस अब खुल कर इसके समर्थन में है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव से पहले दलों का ही नहीं दो अहम मुद्दों का भी लिटमस टेस्ट होगा। मुद्दों के मामले में जनादेश दो सवालों का जवाब देगा। पहला देश में मंडल राजनीति का भविष्य है या नहीं? और दूसरा क्या देश में महिला सशक्तीकरण के नाम से वाकई आधी आबादी का वोट बैंक खड़ा किया जा सकता है? जनादेश बताएंगे कि इसके चंद महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव की गाड़ी किन मुद्दों की पटरी पर दौड़ेगी?
दरअसल, बीते दस साल में राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और विकास के मुद्दे पर भाजपा के साथ ब्रांड मोदी से हर मोर्चे पर मुंह की खाने वाले विपक्ष ने एक बार फिर से कमंडल का मुकाबला मंडल से करने की रणनीति बनाई है। हां, इस बार मंडल की राजनीति के किरदार बदल गए हैं। यूपीए सरकार के दौरान जाति को अहमियत नहीं देने वाले राहुल गांधी अब जाति जनगणना के न सिर्फ समर्थन में आ गए हैं, बल्कि चुनाव के बाद बिहार की तर्ज पर जातियों की गिनती की बात कर रहे हैं। इस मामले में विपक्षी दल इंडिया में शामिल दलों का रुख समान है।
जाति गणना से महिला आरक्षण में कोटा तक
विपक्षी गठबंधन न सिर्फ केंद्रीय स्तर पर जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं, बल्कि केंद्र की सत्ता में आने के बाद इस वादे को पूरा करने की घोषणा कर रहे हैं। इसके साथ ही कभी महिला आरक्षण में ओबीसी कोटा की मांग को दरकिनार करने वाली कांग्रेस अब खुल कर इसके समर्थन में है। इनकी रणनीति जाति के सवाल पर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का मुकाबला करने की है। ऐसे में इन राज्यों के जनादेश बताएंगे कि मंडल-1 के बाद भी सामाजिक न्याय के जरिये कमंडल का मुकाबला करने के लिए मंडल का हथियार कारगर है या नहीं?
चुनाव के नतीजे यह भी साबित करेंगे कि देश में महिला वोट बैंक को अलग से स्थापित करने की गुंजाइश है या नहीं। दरअसल दशकों इंतजार के बाद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का एक तिहाई प्रतिनिधित्व तय करने के लिए संसद के बीते सत्र में ही महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर के बाद यह विधेयक कानूनी जामा पहन चुका है। भाजपा इसके जरिये अपने पक्ष में महिला वोट बैंक बनाने की कोशिश कर रही है जबकि विपक्षी दल इसमें ओबीसी कोटा का सवाल उठाकर यहां भी मंडल-2 की राजनीति का आगाज करने की कोशिश में हैं। ऐसे में जनादेश से साबित होगा कि महिला सशक्तीकरण के नाम पर आधी आबादी का अलग से वोट बैंक बनाने की कोशिश परवान चढ़ेगी या इसे भी मंडल-2 की राजनीति लील लेगी।
इसलिए भाजपा को भय नहीं
मंडल-2 की राजनीति से भाजपा चिंतित जरूर है मगर आतंकित नहीं है। आतंकित बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के नेता हैं, जहां जाति का सवाल हर चुनाव में अहम रहता है। भाजपा के रणनीतिकारों का कहना है कि मंडल-1 की राजनीति में कई क्षेत्रीय दल महज 30 फीसदी वोट पा कर सफल रहे, जबकि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 224 सीटों पर 50 फीसदी से अधिक वोट हासिल किए। जिन राज्यों में जाति सबसे अहम है उन राज्यों में ही पार्टी ने ज्यादातर सीटें 50 फीसदी के ज्यादा अंतर से जीती। ऐसे में अगर मंडल-2 की राजनीति कारगर भी होती है तो भाजपा के जीत के अंतर का मुकाबला नहीं कर सकती।
असर नहीं पड़ने के ये भी कारण
संघ के रणनीतिकारों का मानना है कि केंद्रीय राजनीति में जब मंडल-1 का व्यापक असर हुआ तब स्थिति दूसरी थी। राज्य और केंद्र की राजनीति में अगड़ा वर्ग ही चेहरा था। तीन दशक बाद स्थिति में बड़ा बदलाव हुआ है। अब ओबीसी के इतर अति पिछड़ी जातियां (ईबीसी) अपने सशक्तिरण की राह देख रही हैं। इन्हें लगता है कि ओबीसी आरक्षण की मलाई ओबीसी में शामिल रसूखदार जातियां खा रही हैं। ऐसे में जातिगत जनगणना से अगड़ा बनाम पिछड़ा के साथ पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा की भावना भी पैदा हुई है।
लोकसभा चुनाव के लिए इसलिए अहम
पांच राज्यों के नतीजे ने कई बार राष्ट्रीय राजनीति पर असर नहीं डाला है। इन चुनावों में बढ़त लेने वाले दल को कभी सत्ता गंवानी पड़ी है तो कभी इन राज्यों में जीत के बावजूद विपक्ष को लोकसभा चुनाव में निराशा हाथ लगी है। हालांकि चुनाव के नतीजे यह जरूर बताते हैं कि लोकसभा चुनाव का मुद्दा क्या होगा?