जिस तरह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने तीन तलाक़ को महिलाओं की आज़ादी का मुद्दा बनाया और संसद में इस पर क़ानून पास कराया, पूरे देश में इस पर एक बहस खड़ी हो गई है.
तलाक़ के मुद्दे को हमारे फ़िल्मकार भी अपनी फ़िल्मों में दिखाते रहे हैं. कुछ फ़िल्में तो तलाक़ पर ही पूरी तरह केन्द्रित रहीं. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जिस फ़िल्मकार ने इसे सबसे पहले अपनी फ़िल्म में उठाया वह भी मोदी थे, अपने दौर के जाने-माने फ़िल्मकार सोहराब मोदी.
सोहराब मोदी ने सन 1938 में ही ‘तलाक़’ नाम से फ़िल्म बना दी थी. सोहराब मोदी ने इस समस्या और इसके परिणामों को उजागर किया. यह फ़िल्म दर्शकों को काफ़ी पसंद आई और बॉक्स ऑफिस पर भी हिट साबित हुई.
हालांकि सोहराब मोदी की यह ‘तलाक़’ तीन तलाक़ पर यानी मुस्लिम पृष्ठभूमि पर नहीं थी. लेकिन फ़िल्म में तलाक़ और उस समय इससे जुड़े क़ानून के दांव पेच को दिखाया था.
यह फ़िल्म तलाक़ में महिलाओं के अधिकार की आवाज़ उठाकर महिला सशक्तीकरण के समर्थन में थी.
इसमें उस समय के मशहूर सितारे नसीम बानू, प्रेम अदीब, गजानन जागीरदार और नवीन याज्ञनिक मुख्य भूमिकाओं में थे. मोदी के विख्यात मिनर्वा मूवीटोन बैनर से बनी इस फ़िल्म की कहानी को आनंद कुमार और गजानन जागीरदार ने लिखा था.
भारत में ब्रिटिश शासन के दौर में बनी इस फ़िल्म की नायिका रूपा एक राजनेता निरंजन की पत्नी है. लेकिन अपने पति की कई बातों से परेशान होकर वो उससे तलाक़ लेना चाहती है. लेकिन निरंजन तलाक़ नहीं लेना चाहता.
फ़िल्म ‘तलाक़’
तब रूपा एक पत्रिका ‘आँधी’ के संपादक की मदद लेती है. वह तलाक़ के क़ानून में कुछ बदलाव दिलवाकर उसके पति से उसे आज़ाद करा देता है.
और रूपा एक अन्य व्यक्ति अमरनाथ से शादी कर लेती है. लेकिन बाद में अमरनाथ उसी क़ानून को माध्यम बनाकर रूपा से तलाक़ ले लेता है, जिस क़ानून के सहारे रूपा को अपने पहले पति से तलाक़ मिला था.
इस फ़िल्म के बाद ‘तलाक़’ नाम से एक और फ़िल्म साल 1958 में भी बनी.
निर्माता निर्देशक महेश कौल की इस फ़िल्म में राजेंद्र कुमार नायक थे और कामिनी क़दम, राधाकृष्ण, सज्जन और यशोधरा काटजू के साथ बेबी मलिका अन्य प्रमुख कलाकार थे.
इस ‘तलाक़’ की कहानी उस समय के सुप्रसिद्द लेखक पंडित मुखराम शर्मा ने लिखी थी. फ़िल्म में दिखाया गया था कि एक स्कूल अध्यापिका इन्दु जब एक कवि और इंजीनियर रवि शंकर के देश भक्ति के गीत एक समारोह में सुनती है, तो वह उससे प्यार कर बैठती है. दोनों शादी कर लेते हैं.
इन्दु शादी के बाद अपनी नौकरी छोड़ अपने बेटे आशू के पालन पोषण में जुट जाती है. लेकिन इसी दौरान इन्दु के पिता अपने दामाद रवि से काफ़ी पैसे उधार लेकर जुए में हार जाते हैं. जिसका खामियाजा इन्दु को तलाक़ का सामना करके भुगतना पड़ता है.
साथ ही अपने गुजर-बसर के लिए उसे फिर से अपनी पुरानी नौकरी पर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
इस फ़िल्म की सफलता के बाद तब कई निर्माताओं ने इस विषय पर फ़िल्म बनाने की योजना बनाई. लेकिन कुछ फ़िल्में पूरी ही नहीं हो पाईं. साथ ही जहां निर्माता जीतेंद्र की फ़िल्म ‘दीदार ए यार’ में मुस्लिम समाज में निकाह की शर्तों को अच्छे से दिखाया तो ‘जुनून’ और ‘शमा’ जैसी फिल्मों में भी मुस्लिम महिलाओं की टीस को बख़ूबी दिखाया.
पिछले कुछ बरसों में भी तलाक़ को लेकर दो तीन फ़िल्में बनीं और कुछ सीरियल भी. सीरियल में जहां ऐसा बड़ा प्रयास कुछ बरस पहले सोनी चैनल पर ‘हिना’ से हुआ था तो हाल ही में प्रसिद्द सीरियल निर्माता धीरज कुमार ने तीन तलाक़ को लेकर ही ज़ी टीवी के लिए एक सीरियल ‘सुभान अल्लाह’ बनाया.
हालांकि साल 1984 में शर्मिला टैगोर, गिरीश कर्नाड, विजेंद्र घाटगे और जासमीन को लेकर बनी एनडी कोठारी की फिल्म ‘डाईवोर्स’ और साल 2005 में बनी ‘डाईवोर्स’-नॉट बिट्वीन हसबेंड एंड वाइफ़’ को ज़रा भी सफलता नहीं मिली. इस दूसरी फ़िल्म में जैकी श्राफ, सोनू सूद, तनिष्ठा और मंदिरा बेदी जैसे कलाकार थे. लेकिन यह फ़िल्म ठीक से थिएटर तक भी नहीं पहुँच पायी.
बीआर चोपड़ा की फ़िल्म ‘निकाह‘
इस विषय पर तीसरी फ़िल्म आई ‘निकाह’. निर्माता निर्देशक बीआर चोपड़ा की ‘निकाह’ तीन तलाक़ को लेकर बनी एक ऐसी फ़िल्म थी, जिसमें मुस्लिम महिलाओं के दर्द के विभिन्न पहलुओं को बहुत बरीक़ी से दिखाया गया था.
‘निकाह’ फ़िल्म बनाने में चोपड़ा को कई मुश्किलें आईं. शुरू होने से पहले ही कई लोगों ने अदालत का दरवाज़ा तक खटकाया. लेकिन किसी तरह ये फ़िल्म पूरी हुई.
‘निकाह’ फ़िल्म 24 सितम्बर 1982 को रिलीज़ हुई तो इसे देखने के लिए पहले दिन ही मुंबई सहित देश के कई सिनेमा घरों में लंबी लंबी कतारें लग गईं. हालांकि फ़िल्म प्रदर्शन के दो दिन बाद कुछ मुस्लिम संगठनों ने ‘निकाह’ को न देखने के लिए मुंबई के कुछ सिनेमा घरों पर पोस्टर भी लगवा दिए थे.
लेकिन फ़िल्म की कहानी, संवाद और गीतों ने ऐसी धूम मचाई कि अधिकतर थिएटर्स पर ‘हाउस फुल’ के बोर्ड लग जाते थे. ‘निकाह’ की कहानी को लिखा था -अचला नागर ने.
इसके लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर के ‘सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखिका’ सहित कई अन्य पुरस्कार भी मिले.
साथ ही कई फ़िल्मकार उनसे अपनी फ़िल्में लिखवाने के लिए मचलने लगे. इनमें बाद में चोपड़ा की ‘बागबान’ और ‘बाबुल’ भी अचला नागर ने लिखी.
साथ ही आख़िर क्यों, ईश्वर, नगीना, निगाहें, नज़राना, आदमी खिलौना है, सैलाब, सदा सुहागन और मेरा पति सिर्फ़ मेरा है जैसी कई फिल्में भी अचला जी ने ही लिखीं.
लेकिन जब उन्होंने ‘निकाह’ लिखी तब वो नई नई थीं. आकाशवाणी मथुरा में काम करती थीं. इसके अलावा उनकी एक पहचान यह थी कि वह महान साहित्यकार अमृतलाल नागर की बेटी हैं.
असल में अचला नागर ने ‘निकाह’ की कहानी ‘माधुरी’ पत्रिका के लिए लिखी थी. उनकी यह कहानी कैसे ‘निकाह’ फ़िल्म के रूप में आई यह भी दिलचस्प है.
अचला नागर बताती हैं, “मैं कुछ न कुछ लिखती रहती थी. साल 1980 में अपने मुंबई प्रवास के दौरान मैं ‘धर्मयुग’ में गई तो वहीं पर ‘माधुरी’ के संपादक विनोद तिवारी से मुलाक़ात हुई, उन्होंने कहा कि ‘माधुरी’ के लिए कोई कहानी लिखिए.”
‘माधुरी’ यूं तो फ़िल्म पत्रिका थी लेकिन विनोद तिवारी ने उसमें ‘साहित्य मंथन’ स्तंभ में ऐसी कहानियाँ देनी शुरू की थीं जिन पर फ़िल्मकार फ़िल्म बनाना चाहें तो बना सकें. कुछ समय बाद अचला नागर ने ‘तोहफ़ा’ नाम से एक कहानी लिख ‘माधुरी’ में दे दी.
‘निकाह’ का आइडिया
यहाँ यह भी बता दें कि अचला नागर को अपनी ‘तोहफ़ा’ कहानी का तीन तलाक़ वाला आइडिया अभिनेता संजय ख़ान और अभिनेत्री ज़ीनत अमान की एक ख़बर से मिला था.
अचला बताती हैं, “एक दिन एक फ़िल्म पत्रिका में मैंने ख़बर पढ़ी कि संजय ख़ान ने अपनी फ़िल्म ‘अब्दुल्लाह’ की शूटिंग के दौरान फ़िल्म की नायिका ज़ीनत अमान से शादी करने के बाद उन्हें तलाक़ दे दिया. लेकिन अब वह हलाला की रस्म करके फिर से शादी करना चाहते हैं.”
अचला नागर ने बताया, “मुझे यह ख़बर पल्ले नहीं पड़ी. तब इस ख़बर को समझने के लिए आकाशवाणी के तबला वादक बाबू खाँ से पूछा तो उन्होंने बताया की हलाला क्या है. और दोबारा निकाह करने के लिए किस तरह उस औरत को ज़लालत की ज़िदगी जीने पर मजबूर होना पड़ता है. बस उसी के बाद मेरे दिमाग़ में इस कहानी का जन्म हुआ. बाद में यह ‘निकाह’ फ़िल्म बनकर सभी के सामने पहुंची.”
‘तोहफ़ा’ नाम की उनकी यह कहानी कभी फ़िल्म बनेगी इसकी कल्पना अचला नागर को दूर दूर तक नहीं थी. ‘माधुरी’ में यह अक्तूबर 1981 में प्रकाशित हुई. लेकिन उससे पहले अचला नागर ने अपनी कहानी को ख़ुद ही नाटक का रूप देकर आकाशवाणी मथुरा से प्रसारित कर दिया.
इसी दौरान जब बीआर चोपड़ा ‘इंसाफ़ का तराजू’ की शूटिंग में व्यस्त थे, वो एक इंटरव्यू के सिलसिले में उनसे मिलीं. वो उन दिनों वीसीआर आने के कारण टेली फ़िल्म की योजनाओं पर भी काम कर रहे थे.
चोपड़ा से मुलाक़ात के दौरान अचला ने तब ‘तोहफ़ा’ नाटक की पटकथा भी उन्हें दे दी. चोपड़ा को ये कहानी इतनी पसंद आई कि उन्होंने इस पर टेली फ़िल्म की जगह फ़ीचर फ़िल्म बनाने का फैसला ले लिया.
निकाह की कहानी
चोपड़ा ने इस कहानी पर अपनी लेखकीय टीम के राही मासूम रज़ा और पंडित नरेंद्र शर्मा से कई पहलुओं पर बात की. फ़िल्म का नाम उन्होंने ‘तलाक़, तलाक़ तलाक़’ रखने का फैसला किया. लेकिन बाद में इसका नाम ‘निकाह’ रख दिया गया.
पाकिस्तान मूल की सलमा आगा को फ़िल्म की नायिका नीलोफ़र का रोल दिया गया. राज बब्बर को उनके प्रेमी हैदर और दीपक पाराशर को नीलोफ़र के शौहर नवाब वसीम का क़िरदार मिला.
हैदराबाद की पृष्ठभूमि पर बनी इस फ़िल्म में दिखाया गया कि ओसमानिया यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए शायर मिजाज़ के हैदर अपने साथ पढ़ रही नीलोफ़र को दिल दे बैठता है जबकि नीलोफ़र की सगाई नवाब ख़ानदान के वसीम से हो चुकी है. वसीम और नीलोफ़र जल्द निकाह कर लेते हैं. हनीमून भी मनाते हैं. लेकिन कुछ दिन बाद हालात बदलने लगते हैं.
अपनी बिज़नेस की ज़िम्मेदारियों में वसीम के दिन रात व्यस्त रहने से नीलोफ़र ख़ुद को अकेला महसूस करती है.
यहाँ तक जब अपनी शादी की पहली सालगिरह की पार्टी पर भी वसीम नहीं पहुँचता तो नीलोफ़र बिफर उठती है. रात को दोनों के बीच इतना झगड़ा होता है कि वसीम ग़ुस्से में नीलोफ़र को तलाक़ तलाक़ तलाक़ बोल देता है.
नीलोफ़र, वसीम का घर छोड़ देती है और इसी दौरान उसकी मुलाक़ात हैदर से होती है जो एक पत्रिका का संपादक है. दोनों जल्द ही करीब आ जाते हैं. उधर वसीम भी फिर से नीलोफ़र से शादी करना चाहता है. वह नीलोफ़र को ख़त लिखकर कहता है कि वह हैदर से तलाक़ लेकर उससे फिर से शादी कर ले.
जिसे देख महिलाएं रो पड़ती थीं
हैदर उस ख़त को पढ़ता है तो समझता है कि नीलोफ़र अब भी अपने पहले पति वसीम से प्यार करती है. यह सोच हैदर, नीलोफ़र के जन्म दिन पर वसीम को अपने यहाँ बुलाकर, उसे जन्मदिन के तोहफ़े के रूप में नीलोफ़र के सामने पेश करता है.
यह देख नीलोफ़र ग़ुस्से आगबबूला हो जाती है और कहती है, “मैं कोई जायदाद नहीं. मैं जीती जागती औरत हूँ, ज़िंदा लाश नहीं. जिसकी मर्दाना समाज अपनी मर्ज़ी से क़ब्रें बदलता रहे.”
देखा जाए तो तलाक़ और ख़ासतौर से तीन तलाक़ को लेकर बनी ‘निकाह’ एक ऐसी सशक्त फ़िल्म थी, जो सभी को दिल की गहराइयों तक झकझोर कर रख देती है.
फ़िल्म के कितने ही संवाद औरत के तलाक़ के दर्द और भय को दिखाने के साथ मर्दों के जुल्म ओ सितम को दर्शाते हैं. फ़िल्म का अंत तो ऐसा था जिसे देख महिलाएं रो पड़ती थीं.
फ़िल्म की लेखिका अचला नागर कहती हैं, “आज भी मेरे कानों में दर्शकों की वे तालियाँ गूँजती हैं, जो वे मेरे संवादों पर बजाते थे. लेकिन यह सच है कि इस फ़िल्म को इतना अच्छा और यादगार बनाने का श्रेय सिर्फ़ बीआर चोपड़ा को जाता है. मेरी कहानी को उन्होंने जो शिखर दिया वो शायद कोई और फ़िल्मकार नहीं दे पाता. जितना मैं अपनी फ़िल्म की सफलता से ख़ुश थी उससे ज़्यादा अब ख़ुश हूँ, जब देश की महिलाओं को तीन तलाक से आज़ादी मिलकर उन्हें अपनी ज़िंदगी इज्ज़त और अपने ढंग से जीने का क़ानूनी हक़ मिला है.”