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80 करोड़ रुपये राजधानी तो दूसरे राज्य कर रहे 200 करोड़ से ज्यादा का निर्यात

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चिकन कारोबारियों ने कहा कि बड़े ब्रांड्स और निर्यातक सबसे पहले लखनऊ को ऑर्डर देते हैं, लेकिन बल्क ऑर्डर की डिलीवरी समय से करने में हम कमजोर हैं। साथ ही फिनिशिंग व हाईटेक सिलाई के मामले में भी पिछड़े हैं। इस गैर पेशेवर रवैये के कारण बड़े ऑर्डर और ब्रांड दिल्ली, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र के संगठित कारोबारियों के पास जा रहे हैं।

नवाबों के शहर लखनऊ की 400 साल पुरानी विरासत चिकन पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इस लखनवी परिधान पर पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश ने अपनी नजरें गड़ा दी हैं। वहीं, लखनऊ से ज्यादा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, सूरत और अहमदाबाद से इसका निर्यात हो रहा है।चिकन कारोबारियों ने कहा कि बड़े ब्रांड्स और निर्यातक सबसे पहले लखनऊ को ऑर्डर देते हैं, लेकिन बल्क ऑर्डर की डिलीवरी समय से करने में हम कमजोर हैं। साथ ही फिनिशिंग व हाईटेक सिलाई के मामले में भी पिछड़े हैं। इस गैर पेशेवर रवैये के कारण बड़े ऑर्डर और ब्रांड दिल्ली, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र के संगठित कारोबारियों के पास जा रहे हैं।
उन्होंने सवाल किया कि महज हजार-दो हजार रुपये महीना कमाने वाले चिकन कारीगरों से हम क्या उम्मीद करें। यही कारण है कि लखनऊ से इसका निर्यात 80 करोड़, जबकि दूसरे राज्यों में 200 करोड़ के पार।

12 हजार मेहनताना, बिक्री पांच लाख में
चिकनकारी से जुड़ी कारोबारी सना फातिमा ने बताया कि साढ़े पांच मीटर की एक साड़ी की बारीक कढ़ाई में छह महिलाएं काम करती हैं और कम से कम इसमें दो महीने लग जाते हैं। मेहनताना मिलता है 12 हजार रुपये। यानी एक कारीगर को दो महीने में महज दो हजार। इसी साड़ी को अन्य राज्यों के ब्रांड पांच से छह लाख रुपये में अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचते हैं। इसी तरह कुर्ते पर बारीक काम करने के एवज में 300 रुपये मिलते हैं, लेकिन बाजार में छह से सात हजार रुपये में आसानी से बिकता है।

चिकनकारी कुटीर उद्योग है। इसमें 80 फीसदी महिलाएं हैं। आय कम होने के कारण नई पीढ़ी इससे जुड़ना नहीं चाहती। बड़े ब्रांड्स यहां के कारीगरों से काम कराते हैं और अपना लेबल लगाकर मुंहमांगी कीमत पर उत्पाद बेच रहे हैं। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश ने अपने यहां चिकनकारी कारीगर तैयार कर लिए हैं। बड़ी संख्या में यहां के ऑर्डर वहां जा रहे हैं।
32 टुकड़ों में बांट दिए चिकन उत्पाद
किसी भी शहर की पहचान से जुड़े उत्पादों को जियोग्राफिकल आइडेंटिफिकेशन (जीआई) टैग दिया जाता है। इसका फायदा न केवल अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलता है बल्कि अच्छी कीमत भी मिलती है। लेकिन कस्टम ने चिकनकारी उत्पादों को 32 हिस्सों में बांट दिया है।
चिकनकारी जीआई टैग वाला एक मात्र प्रोडक्ट है जिसके 32 एचएसएन (नामकरण की प्रणाली) कोड है। इसके बमुश्किल 100 रजिस्टर्ड निर्यातक है, जिसमें लगभग 22 से 26 ही चिकनकारी का निर्यात करते हैं। उनके लिए 32 उत्पादों की रेंज काफी झंझट भरी है।
यही कारण है कि लखनऊ से इसका निर्यात बमुश्किल 80 करोड़ रुपये का है। जबकि दूसरे राज्यों के बड़े ब्रांड्स अपने नाम से 200 करोड़ का निर्यात कर रहे हैं। इतना ही नहीं, करीब 400 करोड़ के चिकन उत्पाद कॉटन उत्पाद के नाम पर निर्यात किए जा रहे हैं क्योंकि उसमें एचएसएन कोड केवल एक है। इससे चिकन की पहचान खत्म हो रही है।
हम कारीगर रह गये, मालिक दूसरे हो गए
आश्चर्य की बात यह है कि इतनी अनमोल विरासत 700 साल में भी गैरे पेशवर, अभाव और संसाधनहीन माहौल से बाहर नहीं निकल सकी। इसी का नतीजा है कि लखनऊ की पहचान पर केवल दूसरे राज्य ही नहीं बल्कि दूसरे देश भी धीरे-धीरे कब्जा कर रहा है। पश्चिम बंगाल की कांथा कढ़ाई के कारीगरों ने चिकनकारी भी सीख ली है। इसके लिए लखनऊ के कारीगरों को वहां बुलाया गया। कोविड काल के बाद से करीब 2200 चिकनकारी के कारीगर बंगाल में ट्रेनर बन गए। वहां से कला बांग्लादेश चली गई और वहां से निर्यात भी शुरू हो गया।
गैर पेशेवर रवैया चिकनकारी उद्योग के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। इसका फायदा पेशेवर कंपनियां उठा रही हैं। हम जॉब वर्कर बनकर रह गए हैं। लखनऊ की पहचान दूसरे राज्यों के कारोबारियों की बन रही है। इतनी अनमोल कला आज भी कारीगर महिलाओं के लिए साइड बिजनेस ही है। दिन का खाली समय ही इस काम को दे रही हैं। -प्रकाश वर्मा, वेलफेयर एसोसिएशन ऑफ चिकनकारी आर्टिसन्स

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