अभिनेता जूनियर महमूद नहीं रहे। गुजरते साल में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए ये सबसे ज्यादा दिल दुखाने वाली खबर रही। हिंदी सिनेमा में 60 और 70 के दशकों में उनका भी ऐसा स्टारडम रहा कि फिल्मों के सेट पर वह उन दिनों की सबसे महंगी कार इंपाला से आया करते थे। उस समय पूरे मुंबई में यह कार बमुश्किल एक दर्जन लोगों के पास ही थी। पिता रेलवे में काम करते थे जिनका महीने का वेतन 320 रुपए था और जूनियर महमूद तब एक दिन का तीन हजार रुपये चार्ज करते थे। जूनियर महमूद ने उस दौर में राज कपूर को छोड़कर तकरीबन सभी सितारों के साथ लगभग 265 फिल्मों में काम किया। जूनियर महमूद उनका स्क्रीननेम है और उनको ये नाम दिग्गज अभिनेता और हास्य कलाकार महमूद ने ही दिया। पिछले साल ही अपने जन्मदिन की पूर्व संध्या पर उन्होंने ‘अमर उजाला’ से ये एक्सक्लूसिव बातचीत की थी।
असली नाम मोहम्मद नईम सैय्यद
मेरा नाम जूनियर महमूद कैसे पड़ा, ये जानने से पहले ये जानना जरूरी है कि मेरा आगाज कहां से हुआ? मेरी पैदाइश और परवरिश एक बहुत ही साधारण परिवार में हुई। मेरा जन्म 15 नवंबर 1956 को मुंबई की वडाला रेलवे कालोनी में हुआ। मेरे पिता मसूद अहमद सिद्दीकी रेलवे में इंजन ड्राइवर का काम किया करते थे और मेरा नाम उन्होंने रखा था मोहम्मद नईम सैय्यद।
बड़े भाई ने पूरा किया पहला सपना
मुंबई में रहने वाले को सिनेमा से इश्क न हो, कम ही होता है। मेरी शुरुआत मेरे बड़े भाई के शौक से हुई। बड़े भाई मोहम्मद बिलाल फिल्मों में स्टिल फोटोग्राफी करते थे। वह मिमिक्री आर्टिस्ट भी कमाल के थे और उनको एक्टिंग का बहुत शौक था। जब वह शूटिंग से आते थे तो सभी एक्टर्स के बारे में बातें करते थे। उनकी बातें सुनकर मैं सोचा करता कि मुझे कब इन सितारों से मिलने का मौका मिलेगा। और, एक दिन मैंने बड़े भाई से कहा कि कभी मुझे भी शूटिंग दिखाने के लिए ले चलो। फिर एक दिन किस्मत मेहरबान हुई और वह दिन भी आ गया।
पहली फिल्म के मिले पांच रुपये
मैं भाई के साथ शूटिंग पर गया और चुपचाप शूटिंग देखने लगा। ‘कितना नाज़ुक है दिल’ फिल्म की शूटिंग चल रही थी जिसमें कॉमेडियन जॉनी वॉकर थे। शूटिंग के दौरान फिल्म का बाल कलाकार बार बार अपनी लाइनें भूल जा रहा था। मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल गया, ‘अमां, इतनी सी लाइन नहीं बोल पा रहा और आ गया एक्टिंग करने।’ फिल्म के निर्देशक ने सुना और चुनौती मुझे दी यही काम कर दिखाने की। मैंने संवाद दोहराया और एक ही टेक में शॉट ओके हो गया। लोगों ने तालियां बजाई और मुझे पांच रुपये मिले। मैं तब आठ साल का था और उस जमाने में पांच रुपये बहुत बड़ी रकम होती थी।
महमूद साहब के घर जाने का न्योता
पहला ब्रेक पाने के बाद मैं बतौर जूनियर आर्टिस्ट काम करने लगा। पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था। तभी मुझे रतन भट्टाचार्य की फिल्म ‘सुहागरात’ में महमूद साहब के साले का रोल करने का मौका मिला। उस फिल्म की शूटिंग के दौरान महमूद साहब से काफी घुलमिल गया। महमूद साहब की बेटी जिन्नी का पहला जन्मदिन था और उन्होंने फिल्म में काम कर रहे सभी लोगों को न्यौता दिया लेकिन मुझे कुछ नहीं बोले। मैंने खुद ही पूछ लिया कि सबको बुला रहे हैं और मुझे क्यों नहीं। वह हंसते हुए बोले, ‘तू भी आ जाना।’
महमूद साहब ने गोद ले लिया
महमूद साहब को मैं भाईजान कहता था। पिताजी को न्यौते की बात बताई तो वह साथ चलने के लिए तैयार नहीं। उनको लगा रहा था कि इतने बड़े आदमी के घर पर क्या करेंगे जाकर? मैंने जिद की तो साथ चलने के लिए तैयार हुए। मैने वहां भाईजान के गाने ‘काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’ पर डांस किया। वहां दिलीप कुमार साहब को छोड़कर इंडस्ट्री के सभी दिग्गज कलाकर थे। भाईजान ने खुशी से मुझे अपनी गोद में उठा लिया और पिताजी से बोले, ‘इस लड़के को मेरी निगरानी में छोड़ दो।’
अपना नाम देकर बनाया शागिर्द
भाईजान (महमूद) ने अगले दिन मुझे दादर स्थित रंजीत स्टूडियो बुलाया और मेरे हाथ पर गंडा बांधकर अपना शागिर्द बना लिया। और, मुझे अपना नाम दिया। यहीं से मुझे लोग जूनियर महमूद कहकर बुलाने लगे। मैंने सवा पांच रुपये उन्हें गुरु दक्षिणा दी और आठ आने (पचास पैसे) की मिठाई खरीद कर लोगों में बाटी। इंडस्ट्री में ऐसे बिरले ही मिलते हैं जो अपना नाम देकर किसी को आगे बढ़ाए। मैं तो भाई जान की जूती के बराबर भी नहीं था। भाई जान ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। जब मैं अपनी कोई फिल्म उनको दिखाता तो वह समझाते थे कि कहां मुझसे गलती हुई है और उसे कैसे सुधारना है। भाईजान का ऐसा रुआब था कि जब भी वह शूटिंग पर जाते तो आसपास का माहौल बदल जाता था।
‘ब्रह्मचारी’ से मिली पहचान
साल 1968 में शम्मी कपूर और मुमताज के साथ फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ में काम करने का मौका मिला। इसके बाद ‘दो रास्ते’, ‘आन मिलो सजना’, ‘कटी पतंग’, ‘हाथी मेरे साथी’ और ‘कारवां’ जैसी कई फिल्मों में काम किया। मेरी ज्यादातर फिल्में सिल्वर जुबली रहीं। उस समय मेरे पिता जी को रेलवे मे 320 रुपये एक महीने के मिलते थे और मैं एक दिन के तीन हजार रुपये लेता था। राज कपूर साहब को छोड़कर उस समय के सभी बड़े सितारों जैसे दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, जितेंद्र आदि के साथ मैंने 265 फिल्मों में काम किया। बाद में मैंने कई मराठी और हिन्दी फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया।
पिताजी की सीख हमेशा याद रखी
पिताजी मुझसे हमेशा कहा करते थे कि कभी भी सफलता का घमंड मत करना और न ही किसी की बद्दुआ लेना क्योंकि दुआ से ज्यादा बद्दुआ लगती है। मुझे जो भी मिला वह सब मेरे माता, पिता और मेरे गुरु भाई जान के आशीर्वाद से मिला, अगर भाईजान मुझे अपना नाम नहीं दिए होते तो शायद मैं कुछ नहीं कर पाता। मैं तो उनकी जूती के बराबर भी नहीं था। अगर जूनियर के आगे से महमूद हटा दिया जाए तो मेरा कुछ अस्तित्व ही नहीं। भाईजान (महमूद) की ही इनायत रही कि उस दौर में मैं इंपाला कार से चलता था। मुझे जो कुछ भी मिला, वह उम्मीद से बहुत ज्यादा मिला है।
आखिरी बार ‘तेनाली रामा’ में नजर आए
मैंने ‘प्यार का दर्द मीठा-मीठा प्यारा-प्यारा’, ‘एक रिश्ता साझेदारी का’ और ‘तेनाली रामा’ जैसे टीवी शो में भी काम किए हैं। अभी पहले जैसे फिल्मों में काम नहीं मिलता है और मैं भी स्टेज शोज में ज्यादा व्यस्त रहता हूं। बचपन से लेकर अब तक देश विदेश में इतने शो कर लिए कि मुझे गिनती याद नहीं। जब भी भारत का नक्शा देखता हूं तो ऐसा कोई शहर नहीं दिखता जहां मैंने स्टेज शोज न किए हों। आखिरी बार मैंने सीरियल ‘तेनाली रामा’ में काम किया था। फिल्में अभी पहले जैसी नहीं बन रही हैं। पहले हम फिल्में देखते थे तो तीन घंटे की फिल्म घर लेकर जाते थे और आज दो घंटे की फिल्म देखते हैं और पॉपकॉर्न खाने के बाद भूल जाते हैं।