चिकन कारोबारियों ने कहा कि बड़े ब्रांड्स और निर्यातक सबसे पहले लखनऊ को ऑर्डर देते हैं, लेकिन बल्क ऑर्डर की डिलीवरी समय से करने में हम कमजोर हैं। साथ ही फिनिशिंग व हाईटेक सिलाई के मामले में भी पिछड़े हैं। इस गैर पेशेवर रवैये के कारण बड़े ऑर्डर और ब्रांड दिल्ली, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र के संगठित कारोबारियों के पास जा रहे हैं।
उन्होंने सवाल किया कि महज हजार-दो हजार रुपये महीना कमाने वाले चिकन कारीगरों से हम क्या उम्मीद करें। यही कारण है कि लखनऊ से इसका निर्यात 80 करोड़, जबकि दूसरे राज्यों में 200 करोड़ के पार।
12 हजार मेहनताना, बिक्री पांच लाख में
चिकनकारी से जुड़ी कारोबारी सना फातिमा ने बताया कि साढ़े पांच मीटर की एक साड़ी की बारीक कढ़ाई में छह महिलाएं काम करती हैं और कम से कम इसमें दो महीने लग जाते हैं। मेहनताना मिलता है 12 हजार रुपये। यानी एक कारीगर को दो महीने में महज दो हजार। इसी साड़ी को अन्य राज्यों के ब्रांड पांच से छह लाख रुपये में अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचते हैं। इसी तरह कुर्ते पर बारीक काम करने के एवज में 300 रुपये मिलते हैं, लेकिन बाजार में छह से सात हजार रुपये में आसानी से बिकता है।
किसी भी शहर की पहचान से जुड़े उत्पादों को जियोग्राफिकल आइडेंटिफिकेशन (जीआई) टैग दिया जाता है। इसका फायदा न केवल अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलता है बल्कि अच्छी कीमत भी मिलती है। लेकिन कस्टम ने चिकनकारी उत्पादों को 32 हिस्सों में बांट दिया है।
आश्चर्य की बात यह है कि इतनी अनमोल विरासत 700 साल में भी गैरे पेशवर, अभाव और संसाधनहीन माहौल से बाहर नहीं निकल सकी। इसी का नतीजा है कि लखनऊ की पहचान पर केवल दूसरे राज्य ही नहीं बल्कि दूसरे देश भी धीरे-धीरे कब्जा कर रहा है। पश्चिम बंगाल की कांथा कढ़ाई के कारीगरों ने चिकनकारी भी सीख ली है। इसके लिए लखनऊ के कारीगरों को वहां बुलाया गया। कोविड काल के बाद से करीब 2200 चिकनकारी के कारीगर बंगाल में ट्रेनर बन गए। वहां से कला बांग्लादेश चली गई और वहां से निर्यात भी शुरू हो गया।