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मुकाबला गहलोत बनाम कमल…नजर वसुंधरा और सचिन पर, हर चुनाव में नये जनादेश का रहा है इतिहास

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मुकाबला गहलोत बनाम कमल हो गया है। यूं तो राज्य का सियासी मिजाज हर साल नया जनादेश देने का रहा है, मगर इस बार इन दो दिग्गजों की नेतृत्व द्वारा की गई अनदेखी ने राज्य में नए सियासी समीकरण की संभावनाओं को जन्म दिया है।

Rajasthan: Contest Gehlot vs Kamal, history of new mandate in every election

राजस्थान में चुनावी शंखनाद के बाद इस बार भावी परिणाम से ज्यादा चर्चा दिग्गज नेताओं के भविष्य को लेकर है। इनमें कांग्रेस में रह कर बगावती सुर अलापने वाले सचिन पायलट हैं तो दूसरी ओर राज्य में दो दशक से भाजपा की चेहरा रहीं वसुंधरा राजे हैं। कांग्रेस ने जहां सीएम अशोक गहलोत पर अपना भरोसा कायम रखा है, वहीं भाजपा ने इस बार वसुंधरा को चेहरा नहीं बनाने का साफ संदेश दे दिया है।

दूसरे शब्दों में मुकाबला गहलोत बनाम कमल हो गया है। यूं तो राज्य का सियासी मिजाज हर साल नया जनादेश देने का रहा है, मगर इस बार इन दो दिग्गजों की नेतृत्व द्वारा की गई अनदेखी ने राज्य में नए सियासी समीकरण की संभावनाओं को जन्म दिया है। भाजपा की ओर से खुद प्रधानमंत्री ने यह कह कर वसुंधरा की संभावनाओं को धूमिल कर दिया है कि इस बार चुनाव में पार्टी का चेहरा सिर्फ कमल है।

दूसरी ओर कांग्रेस ने भी पायलट को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि नेतृत्व की कृपा उनकी जगह सीएम गहलोत पर ही बरसती रहेगी। ऐसे में, किनारे किए जाने के बाद सबकी निगाहें वसुंधरा और पायलट पर हैं। त्वरित प्रतिक्रिया देने की पहचान रखने वाली वसुंधरा नेतृत्व के फैसले पर चुप्पी साधे हुए हैं।

परिवर्तन यात्राओं के साथ अहम कमेटियों में जगह न मिलने के बावजूद वह चुप हैं। इसी तरह पायलट ने भी अब तक कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं दी है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या ये दोनों नेता इसी प्रकार चुप्पी साध कर नेतृत्व के फैसले को स्वीकार कर लेंगे या फिर ठीक चुनाव के दौरान अपने रुख से पार्टी को हैरान करेंगे।

कांग्रेस : गहलोत के करिश्मे पर भरोसा
कांग्रेस को सीएम गहलोत के करिश्मे पर भरोसा है। नेतृत्व ने चुनाव से जुड़ी सारी रणनीति तय करने का जिम्मा गहलोत पर छोड़ दिया है। उसे गहलोत की लोकलुभावन योजनाओं और जातीय समीकरण साधने की कला पर विश्वास है। हालांकि निगाहें सचिन पायलट पर भी टिकी हुई हैं।

भाजपा : माइक्रो मैनेजमेंट पर दांव
भाजपा ने इस चुनाव में चेहरे की जगह माइक्रो मैनेजमेंट को तरजीह दी है। राज्य को चार हिस्से में बांट कर हर जिले के लिए जातीय समीकरण के हिसाब से प्रभारी नियुक्त किए हैं।

प्रभावशाली जातियों के अलग-अलग नेताओं को उभारा जा रहा है। ऐसा लगता है कि भाजपा इस चुनाव को राज्य में नया नेतृत्व उभारने के अवसर के रूप में भी देख रही है। इसके अलावा चुनाव प्रचार की कमान खुद प्रधानमंत्री ने संभाल रखी है।

हिंदुत्व, लाल डायरी और दलित मुद्दा
अशोक गहलोत सरकार को घेरने के लिए भाजपा खुल कर हिंदुत्व कार्ड खेल रही है। राज्य में कट्टरपंथियों द्वारा कन्हैया लाल की हत्या मामले को खुद प्रधानमंत्री ने उठाया। पार्टी भ्रष्टाचार के मामले में गहलोत सरकार पर लाल डायरी को हथियार बना रही है। इसके अलावा राज्य में दलितों के साथ अत्याचार से जुड़े मामले को भी जोर शोर से उठा रही है।

क्या इस बार बदलेगा रिवाज
राजस्थान में तीन दशक से हर चुनाव में मतदाताओं ने नया जनादेश दिया है। यह सिलसिला 1993 से जारी है। 1993 में राज्य में शेखावत की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी थी। इसके पांच साल बाद 1998 में गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस जीती। 2003 में वसुंधरा की अगुवाई में भाजपा, 2008 में गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस, 2013 में वसुंधरा की अगुवाई में भाजपा और 2018 में गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी। देखना है कि क्या इस बार रिवाज बदलेगा।

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