राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में दलित वोट को जोड़ने की सियासत चल रही है। लेकिन इन सबसे इतर उत्तर प्रदेश में जिस तरीके से दलित वोट को अपने साथ जोड़ने की राजनीतिक दलों ने सियासी जंग शुरू की है वह बहुत रोचक हो चली है।
सियासी रोड मैप तो आने वाले विधानसभा के चुनावों को लेकर चार प्रमुख चुनावी राज्यों में तैयार किया जा रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश की सियासत में लोकसभा का जो सियासी रोड मैप और तस्वीर तैयार की जा रही है वह सबसे अलग है। सियासत की इस तस्वीर में सभी राजनीतिक दल बसपा के कोर वोट बैंक के माध्यम से अपनी-अपनी सियासी इबारत लिखने की न सिर्फ तैयारी कर रहे हैं बल्कि दलितों के लिए बड़ा मंच भी तैयार कर रहे हैं। सियासी गलियारों में चर्चाएं इस बात की सबसे ज्यादा हो रही है कि अखिलेश के पीडीए और कांग्रेस के पासी, जाटव वोट पर निशाना लगाने के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरीके से दलित सम्मेलन की तैयारी की है उससे कहीं ऐसा ना हो कि मायावती के कर वोट बैंक में जमकर सेंधमारी हो जाए। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यूपी की सियासत में तैयार किए जा रहे “मिशन डी” यानी मिशन दलित का बड़ा व्यापक असर आने वाले लोकसभा के चुनाव में देखने को मिल सकता है।
समाजवादी पार्टी जिस तरीके से उत्तर प्रदेश में पिछड़े दलित और अल्पसंख्यकों के माध्यम से अपनी सियासी राह बना रही है ठीक उसी तर्ज पर कांग्रेस ने भी दलितों को अपने पाले में रखने का एक बड़ा दांव खेला है। हालांकि यह दांव शुरुआती दौर में तो दलितों की एक बिरादरी पासी समुदाय पर फोकस करते हुए किया है लेकिन पार्टी सिर्फ पासी ही नहीं बल्कि जाटव समेत अन्य दलित को अपने साथ जोड़ने का मेगा अभियान चलाने जा रही है। कांग्रेस पार्टी की ओर से जारी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारी को निर्देश के मुताबिक व अपने-अपने क्षेत्र और इलाकों में दलित समुदाय के साथ भोज करें और उनको संगठनात्मक स्तर पर जोड़ें। इसके साथ-साथ आगे की रणनीतियों के लिए वरिष्ठ पदाधिकारी के संग बैठकों का आयोजन करने का निर्देश तो मिला ही है बल्कि आने वाले दिनों में दलितों के बीच में पार्टी के बड़े नेताओं के आयोजन करने की रणनीति बनी है। सियासी जानकार और वरिष्ठ पत्रकार अब्दुल कयूम कहते हैं कि जिस तरीके से कांग्रेस ने अपने बड़े दलित नेताओं के चेहरे को आगे करके इस समाज को अपने साथ जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की है उससे पार्टी के नेताओं को उम्मीद है कि आने वाले चुनाव में वह अपने खोए हुए इस महत्वपूर्ण वोट बैंक को अपने साथ जोड़ पाएंगे। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत कहते हैं कि उनकी पार्टी जातिगत आधार पर कोई भेदभाव नहीं करती है। कांग्रेस पार्टी हमेशा से सभी धर्म और जातियों के लोगों को आगे बढ़ाने की बात करती आई है। क्योंकि समाज के आखिरी पायदान पर खड़े हर व्यक्ति को आगे लाना है। इसलिए उन सभी लोगों के साथ कांग्रेस कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है।
राजनीतिक जानकारों का कहना है जिस तरीके से सभी सियासी दल दलितों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति बना रहे हैं उससे बहुजन समाज पार्टी को निश्चित तौर पर एक काउंटर और बड़ी रणनीति तो बनानी ही होगी। क्योंकि बहुजन समाज पार्टी का सबसे बड़ा वोट बैंक दलित समुदाय ही रहा है। सीएसजेएम विश्वविद्यालय में राजनीतिक शास्त्र के पूर्व प्रवक्ता और उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों की भूमिका पर शोध करने वाले डॉक्टर जगतराम कहते हैं कि अगर मायावती की सियासत को ढंग से देखा जाए तो पता चलता है कि बीते चुनाव में कम हुई सीटों के बाद भी उनके वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी नहीं हो सकी है। भले ही मायावती की पार्टी को एक लोकसभा के चुनाव में शून्य पर ही क्यों ना सिमटना पड़ा हो। प्रोफेसर जगत राम का मानना है कि लेकिन जिस तरीके से सभी राजनीतिक दल खासतौर से सत्ता पक्ष अपनी योजनाओं के माध्यम से जब दलित समाज को अपनी और जोड़ने की तैयारी करता है तो उसका व्यापक असर भी किसी भी जाति विशेष समुदाय पर पड़ता ही है। ऐसे में यह कहना कि भारतीय जनता पार्टी का दलितों को अपनी और जोड़ने का अभियान चलाना कारगर नहीं होगा ऐसा सियासत में नहीं सोचना चाहिए। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में अगर बहुजन समाज पार्टी बहुत सक्रियता के साथ दलित समाज को अपने साथ नहीं जोड़ती तो संभव है उसका खामियाजा भी दलितों के बटे हुए वोट बैंक के तौर पर उनको देखना पड़े। और इसका सीधा-सीधा असर बहुजन समाज पार्टी यानी मायावती के वोट बैंक पर पड़ सकता है।