चांद का दक्षिणी ध्रुव अंतरिक्ष खोज अभियानों से दूर रहा है। चांद के दुर्गम इलाके में ऊबड़-खाबड़ व विशाल खड्ड से भरी भौगोलिक संरचनाओं की वजह से यहां कोई मिशन भेजना बेहद जोखिमपूर्ण माना जाता रहा है। हालांकि, इसी हिस्से में पानी बर्फ के रूप में मिलने की उम्मीद जताई जा रही है, जो भविष्य के अभियानों व रॉकेट के ईंधन बनाने में काम आएगा।
चंद्रमा ने सदियों से मानव जिज्ञासा को आकर्षित किया है, प्रत्येक नए मिशन के साथ हम इसके भूवैज्ञानिक इतिहास और संरचना के बारे में नई जानारियां जुटा रहे हैं। बहरहाल, भारत सरकार के विज्ञान विभाग के तहत विज्ञान प्रसार के वैज्ञानिक डॉ. टीवी वेंकटेश्वरन दे रहे हैं चंद्रमा से जुड़े बड़े सवालों के जवाब, साथ ही बता रहे हैं, क्यों भारत सहित दुनिया की तमाम अंतरिक्ष महाशक्तियां चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर उतरने को बेकरार हैं और क्यों यह इतना मुश्किल काम है। अगर भारत सफल हुआ, तो इससे क्या हासिल होगा।
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव को लेकर दुनिया की सभी बड़ी अंतरिक्ष एजेंसियों की रुचि का कारण यह धारणा है कि यह स्थायी छाया (अंधेरा) क्षेत्र है, लिहाजा यहां बर्फ के विशाल भंडार हो सकते हैं। भविष्य के अंतरिक्ष अन्वेषण के लिए चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी की सटीक जानकारी बेहद अहम है। यह बर्फ पीने के पानी, ऑक्सीजन और रॉकेट के लिए हाइड्रोजन ईंधन में बदली जा सकती है। अगर चंद्रमा पर बर्फ के पर्याप्त भंडार की ठोस जानकारी मिल जाती है, लंबी अवधि के मिशन आसान हो जाएंगे, क्योंकि इससे ईंधन, पानी और हवा पृथ्वी से लेकर जाने की जरूरत नहीं होगी।
संचार में बाधा लैंडिंग की सबसे बड़ी चुनौती
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर किसी भी अभियान के लिए पृथ्वी पर मिशन कंट्रोल से उसका जुड़ा रहना सबसे बड़ी चुनौती है। चूंकि, चंद्रमा का यह हिस्सा पृथ्वी से संपर्क लिहाज से अनुकूल नहीं है, ऐसे में संचार में बाधा आना स्वाभाविक है। इसी वजह से चंद्रयान-2 नाकाम हुआ था। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव का कुछ हिस्से हमेशा अंधेरे में डूबे रहते हैं, ऐेसे में लैंडिंग सही जगह तलाशना मुश्किल होता है। अंधेरे क्षेत्र में तापमान -230 डिग्री तक गिर जाता है। इस स्थिति में किसी भी उपकरण का काम करना मुश्किल हो जाता है।