उत्तर प्रदेश में भाजपा की योजना साल 2014 के प्रदर्शन के कीर्तिमान को तोड़ने की है। तब पार्टी ने छोटे-छोटे राजनीतिक समूहों और दलों को अपने साथ जोड़ा था। इसके कारण पार्टी सहयोगी अपना दल एस के साथ सूबे की 80 में से 73 सीटें जीती थी।
उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकसभा के बीते दो चुनाव में बड़ा चमत्कार करने वाली भाजपा आगामी चुनाव में भी यही दांव आजमाना चाहती है। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा ने इन्हीं दो सूबों में दलितों और ओबीसी की अलग-अलग जातियों में प्रभावी एक के बाद एक चार दलों को साधा है। इन छोटे दलों के सहारे पार्टी की योजना ओबीसी और दलितों में अपनी पुरानी साख कायम कर चमत्कार को दोहराने पर है।
बड़े काम के हैं छोटे दल
दरअसल, इन दोनों ही राज्यों में छोटे दल बड़े काम के हैं। खासकर उत्तर प्रदेश में इन छोटे दलों का ओबीसी की अलग-अलग जातियों में व्यापक प्रभाव है। सूबे में ओबीसी की आबादी 52% है, जिनमें करीब 41फीसदी गैर यादव ओबीसी हैं। इनमें अनुप्रिया पटेल का ओबीसी की दूसरी सबसे बड़ी जाति कुर्मी में व्यापक प्रभाव है। इसी प्रकार निषाद पार्टी का मल्लाह और उसकी उपजातियों में, दारा सिंह चौहान की नोनिया, धर्मसिंह सैनी की शाक्य-सैनियों में व्यापक प्रभाव है।
जदयू के नाता तोड़ने के बाद भाजपा की योजना दलितों, गैर यादव ओबीसी और अगड़ों का नया गठजोड़ तैयार कर नीतीश के लव-कुश समीकरण को भी ध्वस्त करने की है। राज्य के 16 फीसदी दलित मतदाता अहम हैं। इसलिए पार्टी ने चिराग पासवान के साथ जीतनराम मांझी को साधा है। साथ ही लव-कुश समीकरण पर वार करने के लिए उपेंद्र कुशवाहा को साधने के अलावा नीतीश के करीबी रहे आरसीपी सिंह को पार्टी में शामिल किया है।