1980 में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए साक्षात्कार में कुंदेरा ने कहा था, ‘अपने बचपन में मुझे कोई कहता कि तुम अपने देश को दुनिया से मिटता देखोगे तो मैं इसे बकवास मानता। ऐसी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था। हर आदमी जानता है कि वह नश्वर है, लेकिन यह भी मानता है कि उसका देश अविनाशी है।’
साम्यवाद के प्रति असहमतिपूर्ण लेखन के कारण अपने ही देश चेकोस्लोवाकिया से निकाले गए मिलान कुंदेरा का बुधवार को पेरिस में निधन हो गया। 94 वसंत देखने वाले कुंदेरा को उम्र भर सर्वाधिकारवादी शासन के निर्वासित व्यंग्यकार के रूप में पहचाना गया। अपने उपन्यास ‘दी अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बींग’ से उन्होंने पूरी दुनिया में पाठकों के दिलों में जगह बनाई।
कुंदेरा ने कैमरे पर साक्षात्कार से हमेशा इनकार किया
वर्ष 1968 में साम्यवादी रूस के चेकोस्लोवाकिया पर नियंत्रण के बाद उन्हें अपने साम्यवाद-विरोधी लेखन की वजह से कई परेशानियां उठानी पड़ीं। सिनेमा के प्रोफेसर के तौर पर उनकी नौकरी चली गई। फिर भी वे वर्ष 1975 तक चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में रहे, लेकिन इसके बाद उन्हें निर्वासित होकर फ्रांस जाना पड़ा। 1989 में अहिंसक क्रांति के बाद साम्यवादी सत्ता से बेदखल हुए और चेक गणराज्य का जन्म हुआ लेकिन कुंदेरा तब तक अपने नये जीवन और नई पहचान में ढल चुके थे। चेक गणराज्य नहीं गए और जीवन पेरिस में एक ऊंचे अपार्टमेंट में गुजारा। कुंदेरा ने बाद में अपना साहित्य भी फ्रांसीसी भाषा में ही रचा, उसका चेक में अनुवाद तक नहीं हुआ। ‘दी अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बींग’ भी चेक में 2006 तक प्रकाशित नहीं हुआ। कुंदेरा ने कैमरे पर साक्षात्कार से हमेशा इनकार किया, अन्य साक्षात्कार भी गिने चुने अवसर पर ही दिए। अपने जीवन से जुड़ी जानकारियां बेहद कम सार्वजनिक होने दीं।
मेरा देश मिट जाएगा’, ऐसा कोई नहीं मानता
1980 में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए साक्षात्कार में कुंदेरा ने कहा था, ‘अपने बचपन में मुझे कोई कहता कि तुम अपने देश को दुनिया से मिटता देखोगे तो मैं इसे बकवास मानता। ऐसी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था। हर आदमी जानता है कि वह नश्वर है, लेकिन यह भी मानता है कि उसका देश अविनाशी है।’ इसके अगले ही साल वे कानूनी तौर पर फ्रांस के नागरिक बन गए थे।
किताबों के भविष्य को लेकर चिंतित थे
2011 में कुंदेरा ने कहा था कि वे अपने लेखन की डिजिटल कॉपी बनाने की अनुमति कभी नहीं देंगे। प्रकाशन अनुबंधों में शर्त रखते कि उनकी किताबें पारंपरिक रूप में ही छापी जाएं, स्क्रीन पर नहीं। वे पुस्तकों के भविष्य को लेकर डर जताते। समय ने निर्दयता से आगे बढ़ते हुए किताबों को खत्म करना शुरू कर दिया है, जून 2012 में उन्होंने एक वक्तव्य में कहा था। आधुनिकता के प्रभाव में आए लोगों के लिए कहा था, ‘वे सड़क पर चलते हैं तो साथ चलने वालों से संपर्क नहीं रखते।
‘द जोक’ पहला उपन्यास
कुंदेरा 1953 से ही उपन्यास व नाटक लिखने लगे थे। ‘द जोक’ उनका पहला उपन्यास था। इसमें एक युवा को साम्यवादी नारों का मजाक बनाने पर काम करने के लिए खदानों में भेज दिया जाता है। सोवियत नियंत्रण के बाद इस उपन्यास पर प्रतिबंध लग गया। 1984 के इस उपन्यास में कुंदेरा ने एक सर्जन व बुद्धिजीवी टॉमस के जरिए प्रेम, निर्वासन, राजनीति और गहन निजता को विषयवस्तु बनाया। पश्चिम के पाठकों को यह साम्यवादी विरोध के कारण खासा पसंद आया और कई हफ्तों तक बेस्ट-सेलर बना रहा।