”मैंने सिर्फ़ एक बच्चा रखने का फै़सला इसलिए किया क्योंकि हमारे आर्थिक हालात ऐसे नहीं हैं कि मैं दूसरा बच्चा पैदा कर पाती.”
उत्तर प्रदेश के कानपुर की रहने वाली सलमा (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि उन पर ससुराल से ही नहीं बल्कि मायके पक्ष से भी दूसरे बच्चे का दबाव था.
वह कहती हैं, ”मेरी एक बेटी है और मैं 40 साल की हो चुकी हूँ लेकिन अब भी मुझ पर दूसरे बच्चे का दबाव है. मैं उन्हें यही कहती हूँ कि क्या आप मेरे दूसरे बच्चे का ख़र्च उठा लेंगे. मैं और मेरे पति ये तय कर चुके हैं कि हमें अपनी बेटी को अच्छी तालीम देनी है बस.”
सलमा से ही मिलती-जुलती कहानी जयपुर में रहने वाली राखी की है, जिन्होंने एक बेटे पर ही परिवार को सीमित करने का फ़ैसला लिया.
एक या दो बच्चे तक परिवार को सीमित रखने का फ़ैसला पति के साथ मिलकर सलमा और राखी ने लिया, वहीं NFHS-5 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कमोबेश ऐसी ही तस्वीर भारत में दिखती है, जहाँ कुल प्रजनन दर या टोटल फर्टिलिटी रेट में पिछले कुछ सालों में गिरावट आई है.
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नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे या NFHS-5 के ताज़ा आंकड़ों की बात करें तो भारत में सभी धर्मों और जातीय समूहों में कुल प्रजनन दर या फर्टिलिटी रेट में कमी आई है.
इस सर्वे के अनुसार, NFHS-4 (2015-2016) में जहाँ फर्टिलिटी रेट 2.2 थी, वहीं NFHS-5 (2019-2021) में ये घटकर 2.0 पहुंच गई.
विश्लेषकों के अनुसार, टोटल फर्टिलिटी रेट में कमी का ये मतलब हुआ कि दंपती औसतन दो बच्चे पैदा कर रहे हैं. परिवारों का आकार छोटा हुआ है, हालांकि इस परिवार को छोटा रखने के उनके अपने सामाजिक और आर्थिक कारण हैं.
जहाँ आमतौर पर अब संयुक्त परिवार की सरंचना ख़त्म हो रही है और आर्थिक दबाव के साथ-साथ कामकाजी दंपतियों के लिए बच्चों की देखरेख भी छोटा परिवार रखने के मुख्य कारणों में से एक है. हालांकि विश्लेषकों का ये भी कहना है कि समाज में एक ऐसा तबक़ा भी है, जो लड़के की चाह में दो बच्चों तक ख़ुद को सीमित नहीं कर रहा है.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर पॉपुलेशन साइंसेज़ में प्रोफ़ेसर एस के सिंह और रिपोर्ट के लेखकों में से एक इस दर में आई कमी के कई कारण गिनाते हैं.
उनके अनुसार, ”लड़कियों की शादी की उम्र में बढ़ोतरी और उनके स्कूल जाने के वर्षों में बढ़ोतरी हुई है, वहीं गर्भ निरोध का इस्तेमाल बढ़ा है और शिशु मृत्यु दर में भी कमी आई है.”
साथ ही उनका कहना है कि जिन धर्मों या सामाजिक समूहों में ग़रीबी ज़्यादा है और शिक्षा का स्तर ख़राब हैं, वहाँ कुल प्रजनन दर अधिक पाई गई है.
ग्रामीण और शहरी में फ़र्क
वहीं शहरों में फर्टिलिटी रेट 1.6 है तो ग्रामीण इलाकों में ये 2.1 पाई गई है. इस सर्वे को लेकर इस बात पर भी चर्चा तेज़ है कि मुसलमानों में फर्टिलिटी रेट में काफ़ी कमी आई है.
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर पूनम मुटरेजा का कहना है कि 50 के दशक (1951) में भारत की टोटल फर्टिलिटी रेट या टीएफ़आर लगभग 6 थी, ऐसे में मौजूदा आँकड़ा एक उपलब्धि है. आंकड़े साफ़ बताते हैं कि जहां महिलाएं शिक्षित हैं, वहाँ उनके बच्चे कम हैं. साथ ही इसमें सरकार की मिशन परिवार योजना ने भी अहम भूमिका निभाई है.
साथ ही वे फर्टिलिटी रेट को किसी विशेष धर्म को जोड़ने पर एतराज़ जताते हुए कहती हैं, ”भारत के सबसे ज़्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में जहाँ हिंदू परिवारों में टीएफ़आर 2.29 है, वहीं तमिलनाडु में मुसलमान महिलाओं में ये 1.93 है. ऐसे में इसे धर्म के बजाए शिक्षा और आर्थिक कारणों से जोड़ा जाना चाहिए. क्योंकि जहां महिलाएं शिक्षित हैं, वे कम बच्चे पैदा कर रही हैं.”
भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने साल 2016 में ‘मिशन परिवार विकास’ की शुरुआत की थी. ये योजना उन सात राज्यों के 145 ज़िलों में शुरू की गई थी, जहाँ फर्टिलिटी रेट ज़्यादा है, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम. इस मिशन का लक्ष्य फर्टिलिटी रेट को साल 2025 तक 2.1 से कम करना है.
टीएफआर जब 2.1 तक पहुंचती है, तो उसे ‘रिप्लेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ कहा जाता है. इस आंकड़े तक पहुंचने का मतलब होता है कि अगले तीन से चार दशक में देश की आबादी स्थिर हो जाएगी.
बातें उन मुश्किलों की जो हमें किसी के साथ बांटने नहीं दी जातीं…
ड्रामा क्वीन
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गर्भनिरोध को लेकर फ़ासला
अगर महिलाओं और पुरुषों में गर्भनिरोध की बात की जाए तो ये एक बड़ा फ़ासला दिखाई देता है. जहां 15-49 उम्र की महिलाओं में नसबंदी की दर 37.9 फ़ीसदी है, वहीं पुरुष नसबंदी की दर काफ़ी कम यानी 0.3 फ़ीसदी है. लेकिन पुरुषों में कंडोम का इस्तेमाल बढ़ा है जो 9.5 फ़ीसदी है, जो पिछले NFHS-4 में 5.6 था.
वहीं इसी सर्वे में ये बात भी सामने आई कि 35 या उससे अधिक उम्र की महिलाओं में 27 फ़ीसदी महिलाएं एक से अधिक बच्चे चाहती हैं और केवल 7 फ़ीसदी महिलाएं दो से अधिक बच्चे चाहती हैं.
मुंबई में आईआईपीएस में सीनियर रिसर्च फ़ेलो नंदलाल बीबीसी से बातचीत में कहते हैं कि परिवार नियोजन में पुरुषों की बराबर भागीदारी न होना चिंता का विषय है.
वे कहते हैं, ”साल 1994 में जनसंख्या और विकास को लेकर अंतरराष्ट्रीय कान्फ्रेंस हुई थी, जिसमें परिवार नियोजन को मूलभूत मानवधिकार बनाने पर ज़ोर दिया गया था, लेकिन 25 साल बीत जाने के बाद भी स्थिति में ज़्यादा बदलाव नहीं है और जहां महिलाएं परिवार नियोजन को लेकर फ़ैसला लेने में सक्षम नहीं है, वहां स्थिति ख़राब है.”
प्राची गर्ग को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने का 18 साल का अनुभव है और वे आर्गनॉन इंडिया में दक्षिण एशिया की प्रमुख भी हैं. आर्गनॉन इंडिया दुनिया भर में महिलाओं के स्वास्थ्य पर काम करती है.
इसका क्या होगा असर?
वे मानती हैं कि भारत में गर्भनिरोध का भार ज़्यादा महिलाओं पर होता है, ऐसे में उनके स्वास्थ्य पर ज़ोर देने की बात वे कहती हैं.
प्राची गर्ग के अनुसार, भारत की क़रीब 65 आबादी युवा है, जिसका लाभ भी देश को मिल रहा है. लेकिन भविष्य में इन युवाओं की संख्या कम हो जाएगी और बुज़ुर्गों की आबादी बढ़ जाएगी, ऐसे में सामाजिक संतुलन पर भी असर पड़ेगा. अगर एशिया के देशों जैसे जापान, चीन और ताइवान से तुलना की जाए तो वे आर्थिक तौर ज़्यादा सक्रिय हुए और इसका विपरीत असर परिवार के आकार पर भी पड़ा, जहां अब उनके लिए एक संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है.
चीन की बात की जाए तो वहां की ‘एक बच्चा नीति’ दुनिया के सबसे बड़े परिवार नियोजन कार्यक्रमों में से एक है. इस नीति की शुरुआत साल 1979 में हुई थी और ये क़रीब 30 साल तक चली. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़, चीन की फर्टिलिटी रेट 2.81 से घटकर 2000 में 1.51 हो गई और इससे चीन के लेबर मार्किट पर बड़ा प्रभाव पड़ा.
लेकिन प्राची गर्ग इस बात को लेकर आशावादी हैं कि फर्टिलिटी रेट गिरने से महिलाओं को स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में लाभ मिलेगा और लेबर मार्किट में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ेगी, जिससे देश के आर्थिक विकास में भी बढ़ोतरी होगी.
प्रोफ़ेसर एस के सिंह कहते हैं कि फ़िलहाल भारत के लिए जनसंख्या स्थिरता काफ़ी अहम है. हालांकि अभी फर्टिलिटी रेट में कमी आई है, लेकिन जनसंख्या को स्थिर करने में लगभग 40 साल यानी 2060 के लगभग तक हो पाएगा. भारत फ़िलहाल अपनी युवा आबादी का लाभ उठा रहा है और इसके बाद हर उम्र में ये ग्रोथ रेट स्थिर होगी और संतुलन भी बना रहेगा, ऐसे में एशिया के अन्य देशों से तुलना ग़लत होगी.
हालांकि फर्टिलिटी रेट को लेकर विश्लेषक आशावादी हैं, वहीं ये सवाल भी उठा रहे हैं कि भारत जैसे समाजिक परिवेश में एक संतुलन बनाए रखने की भी ज़रूरत है, जहां छोटे होते परिवार कहीं चाचा, मौसी, मामा जैसे रिश्ते को ही ख़त्म न कर दें.