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एन. रघुरामन का कॉलम:जहां युवा-खर्च करने वाले उपभोक्ता हों, वहीं बिजनेस जमाएं

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95 वां ऑस्कर, जिसमें भारत ने दो अवॉर्ड जीते, यह तीसरा सबसे कम देखा गया ऑस्कर समारोह रहा। तब भी इसके प्रोड्यूसर एबीसी एग्जीक्यूटिव्स राहत की सांस ले सकते हैं क्योंकि रविवार को ये 1.87 करोड़ लोगों को टीवी तक लाने में सफल रहा, दर्शक लगातार दूसरे साल बढ़े।

2021 में 1.4 करोड़ लोगों ने समारोह देखा था, इससे पूरा मनोरंजन उद्योग चौकन्ना हो गया था। बीते साल 1.66 करोड़ दर्शकों ने देखा। 2018 से पहले दर्शक 3.2 करोड़ से नीचे कभी नहीं रहे। विज्ञापनदाताओं के लिए व्यूअरशिप मायने रखती है।

यही कारण है कि अकेडमी अवॉर्ड ने इस साल नए मार्केटिंग पार्टनर जैसे लैटरबॉक्स्ड व सोशल मीडिया साइट टिकटॉक, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर प्रमोशन बढ़ाया। इसके अलावा उन्हें समझ आया कि 1.5 अरब डॉलर कमाने वाली ‘टॉप गन मेवरिक’ व 2.3 अरब डॉलर कमाने वाली ‘अवतार: दे वे ऑफ वाटर’ जैसी लोकप्रिय फिल्मों के नॉमिनेशन से व्यू्अरशिप बढ़ेगी, हालांकि उन्हें अवॉर्ड नहीं मिला। और वे सही थे।

ये फॉर्मूला सिर्फ अंतरराष्ट्रीय नहीं, घरेलू बाजार में भी लागू होता है। हिंदी, मराठी, गुजराती फिल्मों के प्रोड्यूसर व डिस्ट्रीब्यूटर आनंद पंडित का उदाहरण लें, उन्होंने अब दक्षिण भारतीय सिनेमा में कदम रखा है। उनका पहला प्रोडक्शन कन्नड़ एक्शन फिल्म ‘अंडरवर्ल्ड का कब्जा’ आजादी के पहले के और 1980 के बीच का दौर दर्शाती है, इस शुक्रवार को ये ग्लोबल रिलीज हुई।

आरआरआर व पठान की सफलता के बाद अब प्रोड्यूसर्स ने प्रोडक्शन वैल्यू, एक्शन, सिनेमेटोग्राफी और जाहिर है संगीत पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया है, इस तरह भाषा की बाधा खत्म की है। इसके कई कारण हैं। भले बॉलीवुड की नजर उत्तर व पश्चिम भारतीय बाजार पर है, पर पैसा तो दक्षिण भारतीय फिल्में कमा रही हैं।

वो इसलिए क्योंकि 62% सिंगल थिएटर्स दक्षिण भारत में हैं और उत्तर में 16%, पश्चिम भारत में 10% हैं। सिंगल स्क्रीन में टिकटें मल्टीप्लेक्स से तीन गुना तक सस्ती होती हैं, यह मुख्य वजहों में से है कि दक्षिण भारत में लोग फिल्में देखने ज्यादा जाते हैं। कई राज्यों में एंटरटेनमेंट टैक्स 15-60% तक होता है, जबकि दक्षिण के राज्य कर्नाटक व तमिलनाडु में यह जीरो है, जबकि तेलुगु फिल्में सर्वाधिक यूपी की तुलना (60%) में सबसे कम 15% टैक्स देती हैं।

गोदरेज इंटेरियो के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट सुबोध मेहता से इस गुरुवार को बात करते हुए ये सारे घटनाक्रम मेरे दिमाग में आए, जिन्होंने कंपनी के भावी विस्तार का ब्लूप्रिंट पेश किया। वह साफगोई से स्वीकार कर रहे थे कि गोदरेज के आइटम्स वहीं बड़ी संख्या में बिकेंगे जहां रीयल एस्टेट फल-फूल रहा है और जमीन की कम कीमत के कारण कंस्ट्रक्शन उद्योग टीयर-2 व टीयर-3 शहरों में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।

उन्होंने इशारा किया कि इंटीरियर का बिजनेस हमेशा आकांक्षाओं से भरे युवाओं को टारगेट करता है, जिनके पास पैसा व खर्च करने की इच्छाशक्ति है और गोदरेज इंटेरियो अपवाद नहीं है। ताज्जुब नहीं कि कंपनी की अगले तीन सालों में 85% विस्तार की योजना टीयर-2 शहरों में है, वो भी युवा राज्यों जैसे बिहार, मप्र, राजस्थान और उप्र।

निस्संदेह किसी बिजनेस को सफलता की दिशा में तेजी से बढ़ाने के लिए ईंधन ‘नंबर्स’ होते हैं। अगर यह नंबर युवा, आकांक्षी, पैसे वाला है और जीवन की गुण‌वत्ता के लिए खर्च करने तैयार है, तो बिजनेस कभी असफल नहीं हो सकता। यह दुनिया में साबित हो चुकी टेक्नीक है।

फंडा यह है कि नंबर्स की ओर पहले भागें, चाहें जहां भी हों। भले आप उनकी भाषा न समझें लेकिन समय के साथ आप उन नंबर्स में खर्च करने वाली भीड़ को पहचान लेते हैं।

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