8 मार्च को इंटरनेशनल वुमेंस डे है। यह संयोग ही था कि दो दिन पहले एक नामी और कामयाब महिला एंटरप्रेन्योर को महिला दिवस के बारे में अपने विचार व्यक्त करते सुना।
सवाल के जवाब में वो सवाल पूछ रही थीं- क्या हम इंटरनेशनल मेंस डे मनाते हैं। क्या हम पुरुष होने को सेलिब्रेट करते हैं, उसका उत्सव मनाते हैं। अगर पुरुषों के लिए ऐसा कोई दिन नहीं, तो फिर महिलाओं के लिए क्यों। इंटरनेशनल वुमेंस डे मनाने का मतलब है कि हम महिलाओं को कमजोर और पिछड़ा मानते हैं।
उनकी इस बात पर काफी तालियां बजीं और मजे की बात ये थी कि ताली बजाने वालों में ज्यादातर पुरुष ही थे। महिलाएं थोड़ी कनफ्यूज, थोड़ी सकपकाई ये समझ नहीं पा रही थीं कि उन्हें किस तरफ होना चाहिए। उन पुरुषों की तरफ, जो ये मान रहे हैं कि महिलाओं को सारे अधिकार और बराबरी मिल चुकी है या उस तथ्य की तरफ जो उनकी जिंदगी का सच है।
पीछे और अकेले छूट जाने के डर से, कमजोर माने जाने के डर से, समूह में शामिल न किए जाने के डर से आखिर वो सब भी तालियां बजाने लगीं, लेकिन ताली बजाते हुए वो सोच रही थीं कि ये कब और कैसे हुआ कि वो सैकड़ों सालों के पिछड़ेपन के चंगुल से छूटकर मर्दों के बराबर खड़ी कर दी गईं।
क्योंकि सच तो ये है कि उनमें से 80 फीसदी महिलाओं को अपने पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिला। सारी जमीन-जायदाद, मकान, बैंक बैलेंस और फैमिली बिजनेस का उत्तराधिकारी उनका भाई ही रहा। (कोई शुबहा हो तो लैंड और प्रॉपर्टी रिकॉर्ड के आंकड़े चेक कर लीजिए।)
बरसों तक नौकरी करने, दफ्तर में बेहतर परफॉर्म करने के बावजूद हेड, सीईओ, एडिटर वो नहीं बन पाईं। लीडरशिप की भूमिका भी हमेशा से मर्द थे और आज भी हैं।
औरतों ने घर से निकलकर नौकरी करना और घर की इकोनॉमी में योगदान करना तो शुरू कर दिया, लेकिन घर के कामों की जिम्मेदारी, बच्चे के देखभाल की जिम्मेदारी, केयर गिविंग की जिम्मेदारी से उसका पीछा नहीं छूटा।
पुरुषों के एकाधिकार वाली जगह में औरतों को तो मामूली सा हिस्सा मिल गया, लेकिन स्त्रियों के एकाधिकार वाली जगह में पुरुष एक दिन ब्रेकफास्ट बनाकर और एक दिन बच्चे को संभालकर महान पुरुष होने का तमगा पा गया।
पुरुषों को बस थोड़ी भलमनसाहत दिखाने की जरूरत होती है और पूरा समाज टूट पड़ता है उस मर्द को महानता का सर्टिफिकेट देने के लिए। औरत अपनी हड्डियां गला दे सेवा करते, काम करते, लेकिन कोई ये नहीं कहता कि वो कितनी महान है। वो तो बस अपनी ड्यूटी कर रही है।
रोजमर्रा की जिंदगी की ये कहानी तो नहीं ही बदली थी, यूएन विमेन, वर्ल्ड बैंक और वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के आंकड़ों में औरतों के साथ होने वाली हिंसा का आंकड़ा भी नहीं बदला। गजब बात तो ये है कि जैसे-जैसे वक्त बढ़ रहा है, हिंसा का ग्राफ भी ऊपर की ओर ही बढ़ता जा रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का आंकड़ा कहता है कि पूरी दुनिया में हर तीसरी महिला अपने जीवन में कभी न कभी पुरुषों के हाथों रेप और वॉयलेंस का शिकार होती है। हर चौथे मिनट दुनिया में कोई स्त्री पुरुष के हाथों पिट रही होती है।
इसे यूं समझ लीजिए कि जितनी महिलाओं को आप अपनी जिंदगी में जानते हैं, उनमें से हर तीसरी लड़की ने अपनी जिंदगी में हिंसा झेली है। बहुत मुमकिन है, कल रात घर में पिटी हो और आज दफ्तर में मेकअप लगाकर अपने घाव छिपा रही हो।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो वाले बता रहे हैं कि 2021 में 6,589 लड़कियों की उनके नजदीकी लोगों ने हत्या कर दी थी। नजदीकी मतलब पति, प्रेमी, पिता, भाई आदि-इत्यादि।
फिर भी आपको लगता है कि औरत-मर्द के बीच अब कोई भेद नहीं रहा कि सारी बराबरी हासिल हो चुकी है और हमें इंटरनेशनल विमेंस डे मनाने की कोई जरूरत नहीं तो आपकी बुद्धि की बलिहारी है।
सच तो ये है कि आज भी पूरी दुनिया में मर्द महिलाओं के मुकाबले 40 गुना ज्यादा पैसे कमाते हैं। अनपेड लेबर में औरतों की हिस्सेदारी 80 फीसदी है। यानी वो काम जो औरतें प्रेम के नाम पर दिन-रात करती हैं और जिसका उन्हें कोई प्रतिदान भी नहीं मिलता।
दुनिया की 78% संपत्ति कचहरी के कागजों पर मर्दों के नाम दर्ज है। भारत के उन राज्यों में भी जहां खेत में मेहनत औरत करती है, लेकिन मालिकाना हक मर्द का होता है। दुनिया में असंगठित क्षेत्र में 70% लो पेड नौकरियां औरतें करती हैं।
कुल मिलाकर औरतें वो सारे काम करती हैं, जिनका उन्हें क्रेडिट नहीं मिलता। जिसका उन्हें पैसा नहीं मिलता। मिलता भी है तो पुरुषों के मुकाबले बहुत कम मिलता है। फिर भी हमें लगता है कि हमें इंटरनेशनल विमेंस डे की कोई जरूरत नहीं। अब स्वर्णयुग आ चुका है।
इस पूरे नरेटिव के बीच पता है हमारे देश और समाज का सबसे बड़ा संकट क्या है। संकट ये नहीं है कि महिलाएं वंचित हैं, पिछड़ी हैं, हाशिए पर पड़ी हैं। संकट ये है कि इस देश का महान सफल बुद्धिजीवी वर्ग इस सच को मानने के लिए ही तैयार नहीं।
आप अपने आसपास किसी भी मिडिल क्लास मर्द से एक बार इस गैरबराबरी की बात करके देख लीजिए। हर कोई सिर्फ डिनायल में रहता है, खारिज करता है। दावा करता है कि ये सब सौ साल पुरानी बातें हैं। अब दुनिया बदल चुकी है।
दुनिया कैसे बदलेगी, जब हम सच को मानने के लिए ही तैयार नहीं होंगे। हम बीमारी को स्वीकार ही न करें तो डॉक्टर के पास क्योंकर ही जाएंगे। इलाज के बारे में क्योंकर ही सोचेंगे। और बीमारी ठीक भी क्यों ही होगी भला।
वो एक पुरानी कहावत है न कि सोए हुए को तो फिर भी जगाया जा सकता है, लेकिन जो आंख मूंदकर बैठा हो और सोने का नाटक कर रहा हो, उसे कोई कैसे जगाए।
यूं तो ये एक ग्लोबल संकट है, लेकिन अपने देश का सांस्कृतिक संकट बहुत ज्यादा है कि हम नकार में जी रहे हैं। हम औरतों को समाज में, जिंदगी में, घर में, काम, दफ्तर और राजनीति में बराबरी की जगह नहीं दे पा रहे, क्योंकि हम ये मानने को ही तैयार नहीं कि उन्हें बराबर की जगह नहीं मिली है।
दिक्कत ये नहीं कि गैरबराबरी दूर नहीं हो रही, दिक्कत ये है कि गैरबराबरी है, हम ये मानने को ही तैयार नहीं। इसीलिए हम इस बात पर लहालोट होकर ताली बजाते हैं कि हमें इंटरनेशनल विमेंस डे की कोई जरूरत नहीं।
हमें इंटरनेशनल विमेंस डे की जरूरत है। सैकड़ों बार और चीख-चीखकर ये बोलने की जरूरत है कि हमें इसकी जरूरत है। हमें ये कहने की जरूरत है कि बीमारी है और हमें इलाज की जरूरत है। कोई और न बोल तो भी औरतों को तो बोलने की बहुत जरूरत है।
आखिर पिता की संपत्ति में अपना अधिकार बेटी ही तो मांगेगी, वो बेटा नहीं जिसे सारी जमीन-जायदाद थाली में सजाकर दे दी गई।