सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव अब नहीं है। ऐसे में पार्टी के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं। परंपरागत वोट बैंक को बढ़ाकर राष्ट्रीय राजनीति में दखल देना होगा, जिससे क्षेत्रीय दलों को नेताजी के जमाने में मिला रुतबा कायम रहे।
सपा की स्थापना के 30 साल हो चुके हैं। प्रदेश में पार्टी के विधायकों की संख्या बढ़ी है। वोट बैंक में बेतहाशा वृद्धि के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी की ताकत कम हुई है। सांसदों की संख्या कम होने के बाद भी निरंतर ढाल बने रहने वाले नेताजी अब नहीं है। ऐसे में उनकी विरासत को आगे बढ़ाना आसान नहीं होगा।
सियासी जानकारों का कहना है कि पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए रणनीति बदलनी होगी। यह सही है कि सपा दलित वोट बैंक को रिझाने की कोशिश कर रही है। इसका फायदा मिल सकता है लेकिन यह सच्चाई भी स्वीकारनी होगी कि सपा के परंपरागत वोट बैंक यादव और मुस्लिम पर दूसरे दल डोरे डाल रहे हैं। समाजवादी आंदोलन से निकले तमाम नेता या तो इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं अथवा दूसरे दलों में जा चुके हैं।
ऐसे में मुलायम सिंह की सियासी रणनीति से सबक लेते हुए सभी जातियों के गुलदस्ते को सजाने का प्रयास करना होगा। इसके लिए सपा शीर्ष नेतृत्व को नए और पुराने वफादारों की शिनाख्त करनी होगी। एक तरफ मुलायम सिंह के दाहिने हाथ शिवपाल सिंह यादव फिलहाल अलग हैं तो दूसरी तरफ पार्टी सत्ता से दूर है। ऐसे में हर वर्ग के लोगों को जोड़ने की दिशा में अभियान चलाना होगा।
पार्टी के साथ परिवार पर नजर
मुलायम सिंह यादव जिस वक्त राजनीति के सफर पर निकले थे, उस वक्त उनके साथ पूरा परिवार था। तब किसी में न राजनीति महत्वाकांक्षा थी और न ही कुछ खोने का डर। अब हालात बदल गए हैं। परिवार से लेकर रिश्तेदार तक राजनीति में सक्रिय हैं। ऐसे में सपा मुखिया को दोहरी जिम्मेदारी निभानी होगी, दिल बड़ा करना होगा।
एक तरफ राष्ट्रीय अध्यक्ष की तो दूसरी तरफ परिवार की जिम्मेदारी निभानी होगी। मुलायम सिंह के भाई अभयराम ने कुछ समय पहले यह स्वीकार किया था कि मुलायम सिंह के फैसले पर उनके सभी भाइयों की सहमति होती थी। इसका अर्थ साफ है कि इस एकता को बनाए रखना होगा। इधर शिवपाल यादव साथ रहने के साफ संकेत दे रहे हैं। इसे सुखद माना जा सकता है।