पटना की बैठक में केरल, तेलंगाना सहित चुनिंदा राज्यों को छोड़कर भाजपा के खिलाफ एक सीट पर एक ही उम्मीदवार उतारने की रणनीति बनी है। बैठक में भाजपा के खिलाफ राज्यवार रणनीति बनाने और राज्यों में सर्वाधिक प्रभावी दल के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कही गई है। अगर इसी फॉर्मूले पर विपक्षी एकता हुई तो कांग्रेस को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कवायद में कांग्रेस को सबसे अधिक त्याग करने के साथ सबसे ज्यादा घाटा भी उठाना होगा। जिस फॉर्मूले के तहत विपक्ष को एक मंच पर लाने की कवायद हो रही है, उसमें कांग्रेस को सात अहम राज्यों में क्षेत्रीय दलों के रहमोकरम पर रहना होगा, जबकि नौ राज्यों में अपने दम पर भाजपा से सीधी टक्कर लेनी होगी। इसके अलावा विपक्षी एकता की इस कवायद में आम आदमी पार्टी, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस को साधना आसान नहीं होगा।
दरअसल, पटना की बैठक में केरल, तेलंगाना सहित चुनिंदा राज्यों को छोड़कर भाजपा के खिलाफ एक सीट पर एक ही उम्मीदवार उतारने की रणनीति बनी है। बैठक में भाजपा के खिलाफ राज्यवार रणनीति बनाने और राज्यों में सर्वाधिक प्रभावी दल के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कही गई है। अगर इसी फॉर्मूले पर विपक्षी एकता हुई तो कांग्रेस को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
राज्यों में सहयोगी ही विपक्षी एकता के झंडाबरदार…सपा और तृणमूल कांग्रेस को छोड़ दें तो विपक्षी एकता के झंडाबरदार वही दल हैं जो अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस के सहयोगी हैं। मसलन, बिहार में कांग्रेस जदयू, राजद, वामदल वाले महागठबंधन, झारखंड में झामुमो, राजद, जदयू गठबंधन, महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी वाली महाविकास अघाड़ी, तमिलनाडु में द्रमुक समेत कुछ छोटे दलों के गठबंधन में पहले से शामिल हैं।
इस फॉर्मूले के तहत कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, झारखंड में क्षेत्रीय दलों पर निर्भर रहना होगा। इन राज्यों में लोकसभा की 269 सीटें हैं। इनमें कांग्रेस के हाथ बमुश्किल डेढ़ दर्जन सीटें ही आएंगी। बीते चुनाव में इन राज्यों में कांग्रेस महज 14 सीटें ही जीत पाई थी। यूपी में सपा का पहले ही रालोद के साथ गठबंधन है और कांग्रेस का प्रभाव बमुश्किल दो-तीन सीटों पर बचा है।
महाराष्ट्र में एनसीपी-शिवसेना जमीनी मजबूती के हिसाब से कांग्रेस से बहुत आगे हैं। बिहार, झारखंड, तमिलनाडु और जम्मू-कश्मीर में भी पार्टी की प्रभावी उपस्थिति नहीं है। ऐसे में इन राज्यों के क्षेत्रीय दल कांग्रेस को ज्यादा सीटें नहीं देंगे।
त्रिकोणीय मुकाबले वाले राज्यों में भी बड़ी चुनौती
विपक्षी एकता के फॉर्मूले के तहत केरल, तेलंगाना, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में सीटों का बंटवारा नहीं होगा। केरल में सीपीएम, तेलंगाना में बीआरएस और आंध्र प्रदेश में वाईएसआर सीपी को इससे दूर रखा गया है। बीजेडी ने विपक्षी एकता की कवायद से खुद को दूर रखा है।
इन राज्यों में मुकाबला त्रिकोणीय होता है और दो चुनावों के इतिहास बताते हैं कि कांग्रेस केरल को छोड़ कर शेष तीनों राज्यों में बेहद कमजोर है। बीते चुनाव में इन दो राज्यों की 63 सीटों में से कांग्रेस को महज चार सीटें मिलीं थीं।
आप के साथ पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस का भी पेच
विपक्षी एकता की कवायद से आप के साथ-साथ पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के भविष्य में दूर हो जाने के आसार हैं। पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस चाहते हैं कि विपक्षी दलों का मोर्चा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने का विरोध करे। कांग्रेस समेत दूसरे दल इसके लिए तैयार नहीं हैं। फिर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की कीमत पर विस्तार की योजना बना रही आम आदमी पार्टी को विपक्षी जमावड़े में शामिल होने का लाभ नहीं दिख रहा। पार्टी ने बीते कुछ सालों में दिल्ली, पंजाब और गुजरात में कांग्रेस की कीमत पर विस्तार किया है। अब उसके निशाने पर हरियाणा है।
यूपीए का ही विस्तारित रूप
अगर जदयू, शिवसेना और आप को छोड़ दें तो पटना की बैठक में शामिल 16 दलों में से 13 दल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए का हिस्सा रह चुके हैं। ऐेसे में विपक्षी एकजुटता की इस कवायद को यूपीए के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि, यह सच्चाई है कि अगर विपक्षी एकता कायम हुई तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस में से एक ही इसका हिस्सा होगा। जमीनी हकीकत यह है कि आप का इस कवायद में शामिल रहना संभव नहीं है। बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस, बीआरएस पहले ही इस कवायद से दूर हैं, जबकि जदएस भाजपा से गठबंधन की राह पर है।
214 सीटों में हाथ लगीं सिर्फ सात
इसके अतिरिक्त इस फॉर्मूले के कारण नौ अहम राज्यों असम, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड की 214 सीटों पर भाजपा की सीधी चुनौती झेलनी होगी। सीधी टक्कर में बीते दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी घाटा उठाना पड़ा था। बीते चुनाव में पार्टी को इन राज्यों में महज सात सीटें हाथ लगीं थीं। पार्टी की मुश्किल यह है कि इन राज्यों में क्षेत्रीय दल प्रभावहीन हैं। ऐसे में कांग्रेस को यहां विपक्षी एकता का भी कोई लाभ नहीं मिलेगा।