माता-पिता जो करते हैं, उन्हीं को आत्मसात कर बच्चे भी वैसा ही व्यवहार करते हैं। घंटों माेबाइल पर रील देखने, गेम खेलने से बच्चों की आंखें खराब होने, व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने से हम डॉक्टर, मनोचिकित्सक के पास तो दौड़ जा रहे मगर मूल वजह पर ध्यान नहीं दे रहे।
आप भी चाहते हैं कि आपका लाडला किताबों से दोस्ती करे। उसमें अच्छे संस्कार हों। घंटों मोबाइल पर रील न देखे। गेम न खेले। ऐसे विषय, घटनाओं को न तलाशे, जो उसके लिए हितकर न हों तो पहले आपको अपनी आदत बदलनी होगी। बच्चों की पहली पाठशाला, पहला विश्वविद्यालय उनका घर और परिवार होता है। माता-पिता जो करते हैं, उन्हीं को आत्मसात कर बच्चे भी वैसा ही व्यवहार करघंटों माेबाइल पर रील देखने, गेम खेलने से बच्चों की आंखें खराब होने, व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने से हम डॉक्टर, मनोचिकित्सक के पास तो दौड़ जा रहे मगर मूल वजह पर ध्यान नहीं दे रहे। साहित्यकार भी इससे चिंतित हैं। उनका मानना है कि समय रहते तेजी से गहराती इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो बहुत जल्द बच्चे किताबों की महत्ता के साथ ही धर्म, संस्कृति, परंपरा और संस्कार को भी पूरी तरह भूल जाएंगे।
युवाओं के जीवन में मशीनों का व्यापक हस्तक्षेप, इसे तोड़ने की जरूरत
साहित्यकार पद्मश्री प्रो विश्ननाथ तिवारी ने कहा कि अब तो मोबाइल के आकार में किताबें भी प्रकाशित हो रही हैं। युवाओं के जीवन, कार्य व्यवहार में मशीनों यानी मोबाइल, लैपटॉप का एक व्यापक हस्तक्षेप हो गया है। इसे तोड़ने की जरूरत है। मोबाइल की ही वजह से बहुत से बच्चों को आंख के डॉक्टर, मनोचिकित्सक के पास जाने की जरूरत पड़ रही है। किताबें इससे बचा सकती हैं। वह मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन हैं। पढ़ने, याद करने की सुविधा पुस्तकों में ही हैं। बच्चों की हर हाल में यह कोशिश होनी चाहिए कि वह किताबों, लेखकों से जुड़ें। मगर उनमें यह आदत तुरंत नहीं आएगी। यह सतत प्रक्रिया है।
कहा कि माता-पिता को देखकर ही बच्चे सीखते हैं। हम खुद किताबों को दरकिनार कर हर समय मोबाइल से चिपके रह रहे हैं। किचन से लेकर सोते समय बिस्तर तक पर जब तक आंखें पूरी तरह नींद से भर नहीं जाती, हमारे हाथ में मोबाइल होता है। मनुष्य के निर्माण में परिवार नामक संस्था का बहुत बड़ा योगदान है। यदि परिवार के बड़े-बुजुर्ग पढ़ने की आदत डालेंगे तो बच्चे खुद-ब-खुद किताबों से दोस्ती करने लगेंगे।
भौतिकता की बाढ़ में बह रहे माता-पिता, संस्कार प्राथमिकता ही नहीं
तमाम घरों में माता-पिता, दोनों काम करने वाले हैं। उनकी अपनी व्यस्तता है। इस व्यस्तता की वजह से बच्चों को जिस तरह से पालना चाहते हैं, वैसे पाल नहीं पाते। बच्चा रोता है तो उसे चुप कराने के लिए मोबाइल पकड़ा दिया जाता है। मां को किचन में काम करना है तो वह बच्चे को मोबाइल खेलने के लिए दे देती है ताकि वह व्यस्त रहे। बचपन से ही परिवार में मोबाइल की महत्ता को देख बच्चे के लिए भी यह महत्व की चीज हो गई है।इस मोबाइल की जगह यदि बचपन में खिलौने और होश संभालने के साथ ही हाथ में किताबें पकड़ाने की आदत विकसित की जाए तो तस्वीर दूसरी होगी। ऐसा भी नहीं है कि किताबों के कद्रदान कम हो रहे हैं, दरअसल लेखक और प्रकाशक भी ईमानदारी से काम नहीं कर रहे। बाल साहित्य पर ठीक से काम नहीं हो रहा। खुद अज्ञेय जी जैसे बड़े कवि और कथाकार कहते थे कि वह अभी इतने परिपक्व नहीं हुए कि बाल साहित्य लिख सकें। इसके लिए अपने भीतर बच्चा पैदा करना होगा।
किताबों से दूरी के लिए बच्चे नहीं अभिभावक कसूरवार
साहित्यकार डॉ रंजना जायसवाल ने कहा कि घर के माहौल का बच्चों पर बड़ा असर पड़ता है। पहले दादी-नानी पढ़ी-लिखी नहीं होती थी तो भी रामायण-महाभारत की प्रेरणादायी कहानियां सुनाती थीं। अब पढ़े-लिखे होने के बाद भी मां-बाप घर पर किताबों को कम या ना के बराबर समय दे रहे हैं। अखबार तक पढ़ने की आदत छूट रही है। व्यापार, नौकरी से लौटने के बाद लोगों के हाथ में टीवी का रिमोट या फिर मोबाइल आ जा रहा है। बिस्तर पर सोने के समय तक लोग घंटों रील देख रहे हैं। बगल में बच्चा भी यही देख रहा है। परिवार ही बच्चे की पहली पाठशाला होती है। ऐसे में जो परिवार में होगा, बच्चा भी तो वहीं सीखेगा। फिर अकेले बच्चे को दोष देना ठीक नहीं।
किताबों से दूरी बना रही तात्कालिकता
साहित्यकार डॉ. केसी लाल ने कहा कि संस्कार, नैतिकता विकसित करने के साथ ही अपने धर्म, संस्कृति, समाज को समझने के लिए किताबें सबसे सशक्त माध्यम हैं। मगर अब बच्चों ही नहीं बड़ों में भी पढ़ने की आदत खत्म हो रही है। यह सब नए माध्यमों का तात्कालिक प्रभाव है। अभी इंटरनेट, मोबाइल का प्रसार हुआ है।
मनोरंजन के नए साधन विकसित हुए हैं। ऐसे में गंभीर अध्ययन के प्रति लोगों का मन हट गया है। इसका दुष्परिणाम क्या और कितना होगा, अभी यह साफ कह पाना तो मुश्किल है मगर इतना जरूर है कि जीवन के प्रति लोगों की गंभीरता खत्म हो गई है। लोग तात्कालिकता में जी रहे हैं। इंटरमीडिएट में पढ़ने वाले बच्चों तक के मन में इच्छा है कि वह बस किसी तरह बड़ा पैकेज पा जाए। ज्ञानार्जन कर अपने को सक्षम बनना लक्ष्य नहीं रह गया है। यह तात्कालिकता अवसाद को जन्म देती है। किताबों से ज्ञानार्जन होता है। मगर तात्कालिकता किताबों से दूरी बना रही है।