मुस्लिम संशय में हैं। इस वजह से भारतीय जनता पार्टी को फायदा मिल रहा है। सपा और बसपा नगर निकाय चुनाव में अपना आधार वोट साथ नहीं रख सकीं। अर्ध शहरी क्षेत्रों में भी सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस की कुल सीटें भाजपा से कम हैं।
नगर निकाय चुनाव के नतीजों ने राजनीतिक समीकरणों की स्थिति आईने की तरह साफ कर दी है। मुस्लिम संशय में रहा और सीटवार कहीं कम तो कहीं ज्यादा बंटा दिखा। वहां भी इधर-उधर गया, जहां बसपा के दलित-मुस्लिम फैक्टर को मजबूत माना जा रहा
यही वजह रही कि अर्ध शहरी क्षेत्र मानी जाने वाली नगर पंचायतों में भी सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस को मिलाकर जितनी सीटें मिलीं, उससे कहीं ज्यादा कामयाबी अकेले भाजपा ने हासिल की। चुनाव आयोग के आंकड़ों पर नजर डालें तो नगर पंचायत चुनाव में प्रमुख विपक्षी पार्टियों सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस को अध्यक्ष पद की कुल 137 सीटें मिलीं। जबकि, भाजपा के 191 नगर पंचायत अध्यक्ष जीते। इसी तरह से नगर पालिका परिषदों में इन दलों के 62 प्रत्याशी जीते, वहीं भाजपा अकेले 89 पर विजयी हुए। नगर निगम चुनाव को लेकर तो यह कहा जा सकता है कि संघ परिवार का पहले से ही बड़े शहरों में दबदबा रहा है। कर्नाटक चुनाव में भाजपा की पराजय के बावजूद राजधानी बंगलुरू की सीटों पर उसे अच्छी सफलता मिली। लेकिन, अर्ध शहरी क्षेत्र तो सपा और बसपा जैसी पार्टियों की राजनीति के लिए काफी मुफीद माने जाते हैं। फिर वहां भी समूचा विपक्ष इतने पीछे क्यों रहा।कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि विभिन्न कारणों से मुस्लिमों का मत प्रतिशत कम रहा। अपने पक्ष में तथ्य प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि प्रयागराज में सबसे कम मतदान होने पर भी वहां भाजपा को मिली सफलता इसका उदाहरण है। लेकिन, इस विश्लेषण को हर क्षेत्र पर लागू करना सटीक नहीं होगा। सही बात तो यह है कि अधिकतर निकाय क्षेत्रों में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण जहां भाजपा की जीत का आधार बना, वहीं मुस्लिम मतों का बिखराव विपक्ष की दयनीय स्थिति का कारण बना। नतीजे बताते हैं कि शाहजहांपुर में मुस्लिम कांग्रेस और सपा के बीच बंटे। बरेली में भी मुसलमानों का झुकाव किसी एक पार्टी की ओर नहीं रहा।
यही वजह रही कि अर्ध शहरी क्षेत्र मानी जाने वाली नगर पंचायतों में भी सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस को मिलाकर जितनी सीटें मिलीं, उससे कहीं ज्यादा कामयाबी अकेले भाजपा ने हासिल की। चुनाव आयोग के आंकड़ों पर नजर डालें तो नगर पंचायत चुनाव में प्रमुख विपक्षी पार्टियों सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस को अध्यक्ष पद की कुल 137 सीटें मिलीं। जबकि, भाजपा के 191 नगर पंचायत अध्यक्ष जीते। इसी तरह से नगर पालिका परिषदों में इन दलों के 62 प्रत्याशी जीते, वहीं भाजपा अकेले 89 पर विजयी हुए। नगर निगम चुनाव को लेकर तो यह कहा जा सकता है कि संघ परिवार का पहले से ही बड़े शहरों में दबदबा रहा है। कर्नाटक चुनाव में भाजपा की पराजय के बावजूद राजधानी बंगलुरू की सीटों पर उसे अच्छी सफलता मिली। लेकिन, अर्ध शहरी क्षेत्र तो सपा और बसपा जैसी पार्टियों की राजनीति के लिए काफी मुफीद माने जाते हैं। फिर वहां भी समूचा विपक्ष इतने पीछे क्यों रहा।कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि विभिन्न कारणों से मुस्लिमों का मत प्रतिशत कम रहा। अपने पक्ष में तथ्य प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि प्रयागराज में सबसे कम मतदान होने पर भी वहां भाजपा को मिली सफलता इसका उदाहरण है। लेकिन, इस विश्लेषण को हर क्षेत्र पर लागू करना सटीक नहीं होगा। सही बात तो यह है कि अधिकतर निकाय क्षेत्रों में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण जहां भाजपा की जीत का आधार बना, वहीं मुस्लिम मतों का बिखराव विपक्ष की दयनीय स्थिति का कारण बना। नतीजे बताते हैं कि शाहजहांपुर में मुस्लिम कांग्रेस और सपा के बीच बंटे। बरेली में भी मुसलमानों का झुकाव किसी एक पार्टी की ओर नहीं रहा।
मुस्लिम बहुल सीट माने जाने वाली मुरादाबाद नगर निगम सीट पर भी यह विखराव दिखा। नतीजतन, कांग्रेस वहां मामूली अंतर से हारी। कांग्रेस को मिले मत स्पष्ट करते हैं कि वहां मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा सपा के बजाय कांग्रेस की तरफ गया। खास बात यह रही है कि बसपा ने मुसलमानों को बड़ी संख्या में टिकट दिए और वहां मुस्लिम मत एक से ज्यादा दलों के बीच बंटते हुए दिखे। सपा ने तमाम स्थानों पर यह सोचकर ब्राह्मणों, कायस्थ, कुर्मी, क्षत्रिय और दलित प्रत्याशी दिए थे कि मुस्लिम समीकरण के साथ मिलकर यह उसे सम्मानजनक स्थिति में लाएगा, पर मुस्लिम मतों के बिखराव ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया।भाजपा के पक्ष में नगर निकाय चुनाव के नतीजे मुस्लिम मतों में बिखराव की पुष्टि करते हैं। विपक्ष की कोई भी रणनीति, समीकरण या जातिगत-धार्मिक कार्ड सफल होता हुआ नहीं दिखा।-डॉ. संजय गुप्ता, शिक्षक, लखनऊ विवियूपी में मुस्लिम मतदाताओं में बिखराव न होता तो विपक्ष की इतनी करारी हार नहीं होती। मैं तो मानता हूं कि चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के उत्साह में कमी भी इसका एक कारण रहा।