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2 साल की उम्र में पोलियो, मां ने मजदूरी कर पाला, ट्रेनिंग के लिए भाई-भाभी ने गहने-जमीन बेचे

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मेड़ता के शूटर शिवराज सांखला। उम्र 30 साल, शिवराज ने हाल ही में मध्यप्रदेश के महू में हुई थर्ड पैरा नेशनल 50 मीटर शूटिंग चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता है। यह एक गोल्ड जीतने के लिए शिवराज पिछले करीब नौ साल से संघर्ष कर रहे थे। एक के बाद एक कंपीटिशन में मेडल जीतते हुए वे इस मुकाम तक पहुंचे, लेकिन उनके इस संघर्ष की कहानी में हर कदम पर पहाड़ सी मुश्किलें थी और रात का सा घुप्प अंधेरा। जहां पता ही नहीं चलता था कि आगे क्या होगा।

जब दो साल के थे तो पैरों का 80 प्रतिशत हिस्सा अपंग हो गया। माता पिता ने मजदूरी कर पाला। 12 साल की उम्र में पिता भी चल बसे तो दो बड़े भाइयों ने मजदूरी की। इसके बाद शूटिंग का सपना पूरा करने के लिए पहले भाभी ने अपने गहने बेचे और फिर भाइयों ने जमीन।

शिवराज अब पेरिस में होने वाले 2024 के पैरा ओलंपिक में गोल्ड जीतना चाहते हैं और इस सपने को पूरा करने के लिए यह पूरा परिवार ताकत से जुटा है। संघर्ष, सहयोग और सपनों से भरी ताकत की यह कहानी खुद शिवराज से जानिए ….

दो साल की उम्र में पोलियो होने के बाद शिवराज को बड़ा होने पर बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा।

मैं तब कोई दो साल का था, मुझे तो याद नहीं, लेकिन मां बताती है कि जब अपने नन्हें पैरों से दौड़ता था तो कोई पकड़ भी नहीं पाता था। मां थक जाती, लेकिन मैं नहीं। मेरे बड़े भाई बताते हैं कि दिनभर मैं एक मिनट कहीं नहीं टिकता था और खूब शैतानियां करता, …लेकिन एक दिन अचानक मुझे बुखार आया। पिता मजदूरी करते थे, हम तीन भाइयों को पालने के लिए मां भी शादी ब्याह में खाना बनाने जाती। जब यह काम नहीं मिलता तो खेतों में मजदूरी करने जाती। हमारा टूटा फूटा कच्चा सा मकान था और थोड़ी सी जमीन। गरीबी इतनी थी कि यदि दो दिन भी पिता मजदूरी पर ना जाएं तो तीसरे दिन क्या खाएंगे पता नहीं होता था। ऐसे में मुझे आया बुखार माता-पिता दोनों के लिए किसी चिंता से कम नहीं था। मुझे साथ ले जाना मुनासिब नहीं था और छोड़कर जाने के लिए उनका मन नहीं मानता था।

बड़ा होने के बाद कई बार जिद की तो मां ने बताया …उस वक्त तय हुआ कि तुम्हारे पिता मजदूरी पर जाएंगे और मैं शाम को उनके आने के बाद घरों में खाने बनाने का काम करुंगी। किस्मत से एक दो घरों में यह काम शाम के लिए मिल भी गया था।

सो, दिन में मां और शाम को पिता मेरी देखभाल करते, लेकिन बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब मां ने किसी डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर था या कोई नीम हकीम ठीक से तो मां को भी याद नहीं। वह बस इतना बताती है कि उसने जांच कर तुम्हे एक इंजेक्शन लगाया और कहा था कि जल्दी ही ठीक हो जाएगा। दो दिन बाद अचानक ही सवेरे मेरी तबीयत और ज्यादा खराब हो गई। मैं रोता जा रहा था और मां बदहवास सी मुझे डॉक्टर के पास लेकर दौड़ती जा रही थी। पिता भी मजदूरी छोड़ वहां आ गए थे।

…और फिर डॉक्टर ने उन्हें जो बताया उसे सुन वे सन्न रह गए थे। मुझे पोलिया हो गया था। गरीब, अनपढ़ माता-पिता समझे नहीं तो उसने समझाया, कहा – इसके कमर से नीचे का हिस्सा बेजान हो गया है। अब यह कभी नहीं चल पाएगा। मैं तो दो साल का था, तब का आज कुछ याद नहीं, मेरे माता–पिता पर क्या बीती होगी, यह आज समझ सकता हूं। दिनभर शैतानियां करने वाला मैं अब बिस्तर में पड़ा रहता। मां को काम छोड़ना पड़ा, दो भाइयों को स्कूल छोड़नी पड़ी। मां दिनभर मेरी देखभाल करती। परिवार मुसीबतों में फंस गया था।

थोड़ा बड़ा हुआ तो समझ आने लगी कि मैं दूसरे बच्चों से अलग हूं। दूसरों को पैरों पर चलते देखता तो मैं अपने पैरों को देखकर रोता था। जिस उम्र में मेरे हाथ में खिलौने होने चाहिए थे, तब बैसाखियां थी। ऊपर से कभी कभी घर आने वाले लोग मां को मेरे बारे में ना जाने क्या क्या ताने से मार जाते। दोनों बड़े भाई मुझे यहां से वहां बैठाने उठाने में मदद करते, लेकिन मेरा चलने काे जी मचलता था तब मैं जमीन पर घिसटते हुए चलने लगता। घुटनों पर घाव हो जाते तो मां कपड़ा बांध देती। परिवार की गरीबी और मेरी मजबूरी अब मुझे समझ में आने लगी थी।

खैर, जैसे तैसे वक्त बीतता गया। उम्र कोई 12-13 साल हो चुकी थी। उस समय कुछ फिल्में देखी तो उनमें कई बार निशानेबाजी के सीन आते थे। मैं तब से ही निशानेबाजी करने की सोचने लगा। धीरे धीरे घर पर ही गुलेल और खेलने की बंदूक से निशाना लगाने लगा। मेरा निशाना सटीक लगने लगा। मैंने इसके बारे में जानकारी जुटाई तो पता चला कि इसकी प्रैक्टिस के लिए जो उपकरण, पिस्टल आदि चाहिए वे बहुत महंगे आते हैं। जो किसी भी सूरत में मेरे परिवार के लिए संभव नहीं था। शूटिंग का एक ख्वाब मेरी आंखों में पल रहा था, लेकिन गरीबी मेरे हर सपने के सामने खड़ी थी और उसी वक्त मेरे पिता नेमीचंद सांखला का निधन हो गया। परिवार के सामने फिर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। मां निर्मला देवी और दोनों भाइयों मुन्नालाल व कालूराम पूरे परिवार का बोझ था।

कहते हैं कि आपकी सबसे बड़ी ताकत आपका परिवार ही होता है। मुझे आंगन में दौड़ लगाते देखने से लेकर अपंग होने तक मेरी मां और दोनों भाइयों ने देखा था। शायद, इसीलिए गरीब होते हुए भी उन्होंने मुझे कभी काेई कमी महसूस नहीं होने दी। यह 2014 की बात है। मुझे शूटिंग के लिए ट्रेनिंग की जरुरत थी। जो जयपुर में होनी थी, लेकिन इसके लिए तीन चार लाख रुपए चाहिए थे, हमारे परिवार के लिए तो यह रकम बहुत बड़ी बात थी। ऐसा लगता था कि सोचना ही गुनाह है। तब मेरी भाभी मीरा ने अपने सोने के गहने गिरवी रख दिए। इससे उन्हें कोई डेढ़ लाख रुपए मिले। जिनसे मैंने जयपुर के जगतपुरा की फायरिंग रेंज में प्रेक्टिस शुरू की। मुझे तो कई दिन बाद पता चला कि भाभी ने अपने गहने गिरवी रख कर यह रकम लाकर दी थी।

2016 में जीता पहला गोल्ड

2016 में पुणे में हुई पैरा नेशनल चैंपियनशिप की 10 मीटर स्पर्धा में मैंने पहला गोल्ड मेडल जीता। तब परिवार की खुशियां सातवें आसमान पर थी, लगा था कि अब सपने धीरे धीरे पूरे होंगे। 2018 में केरला में हुई पैरा नेशनल चैंपियनशिप की 10 मीटर स्पर्धा में दूसरी बार गोल्ड पर निशाना लगाया। अब स्टेट और नेशलन खेलने के लिए मुझे कुछ महंगी पिस्टल की जरुरत थी। हर बार प्रेक्टिस करने में एक बार में तीस से चालीस हजार रुपए का खर्च आता था। मेरी उम्मीदें भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन उधर, परिवार के पास इतना पैसा नहीं था कि मैं प्रेक्टिस जारी रख सकूं। मां, भैया और भाभी यहां – वहां से कुछ इंतजाम कर पैसे लाकर देते।

कोरोना काल में बढ़ी परेशानी, जमीन बेचनी पड़ी

तभी 2020 में कोरोना आ गया। जयपुर में अब रहना मुश्किल था, लेकिन कंटिन्यू प्रैक्टिस भी जरुरी थी। अब घर पर ही सैटअप लगाना एकमात्र उपाय था, लेकिन इसके लिए लाखों रुपए की जरुरत थी। 10 मीटर शूटिंग की तैयारी के लिए दो लाख रुपए की तो एक पिस्टल ही आती थी। मुझे तो ऐसी तीन चाहिए थी। इस मुश्किल घड़ी में भी मेरे दोनों भाइयों मुन्नालाल और कालूराम ने मेरा सपना नहीं टूटने दिया। मुझे बताए बिना उन्होंने पांच लाख का कर्जा लिया। जिससे मैंने घर पर ही सैटअप लगाया। कर्ज की इस रकम पर ब्याज भी लग रहा था और कोरोना में लॉकडाउन का कुछ पता नहीं था कि कब तक रहेगा। कोई कंपीटिशन भी नहीं हो रहे थे। ऐसे में कर्जा चुकाने के लिए उन्हें छह बीघा जमीन बेचनी पड़ी। परिवार से मिले सपोर्ट से ही मैंने 2016 से 2021 तक नेशनल स्पर्धाओं में 9 मेडल जीते, जिसमें 3 गोल्ड, 4 सिल्वर और 2 ब्रॉन्ज शामिल है। इसके अलावा स्टेट टूर्नामेंट्स में 11 मेडल जीत चुका हूं।

मेरे परिवार के लिए सबसे बड़ी खुशी का दिन 20 दिसंबर 2022 को आया। जब मैंने मध्यप्रदेश के आर्मी मार्कशिप यूनिट रेंज महू में हुई तीसरी पैरा नेशनल शूटिंग चैंपियनशिप की 50 मीटर स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीता, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं था। दरअसल, 50 मीटर स्पर्धा के लिए अलग से पिस्टल आती है, जो काफी महंगी होती है। इसे खरीद नहीं पाया तो दो दिन के लिए रेंट पर लेकर तैयारी की। तीसरे ही दिन उन्होंने 60 राउंड के मुकाबले में 507 प्वाइंट हासिल कर गोल्ड अपने नाम कर लिया। यह मेडल लेकर जब मैं मेड़ता पहुंचा तो इसे देखते ही पूरे परिवार ने मुझे गले लगा लिया। मैंने देखा सब की आंखों में आंसू थे। इस एक गोल्ड को जीतने के लिए मेरे परिवार ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था।

सरकार से नौकरी मिली तो मुश्किलें कुछ कम हुई

शिवराज की उपलब्धियों के बाद राज्य सरकार ने पिछले साल जून महीने में ही उन्हें नौकरी दी है। वे अभी शासन सचिवालय जयपुर में ग्रेड सेकेंड क्लर्क के पद पर हैं। अब गोल्ड जितने के बाद भी उन्हें राज्य सरकार की ओर से 2 लाख रुपए का नकद अवॉर्ड दिया जाएगा। नौकरी लगने के बाद से ही परिवार की मुश्किलें कुछ कम तो हुई हैं, लेकिन प्रोबेशन पीरियड होने से अभी वेतन बहुत कम है।

अब पैरा ओलपिंक पर नजर

शिवराज बताते हैं कि अब उनका सपना 2024 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में होने वाले पैरा ओलंपिक में गोल्ड लाना है। वे इसके लिए दिनरात तैयारी कर रहे हैं। वे बताते हैं कि इसकी तैयारी के लिए उनके पास इतना रुपया नहीं है। यदि उन्हें इंस्पोसरशिप मिले तो वे जी जान से जुट जाएंगे और देश के लिए गोल्ड जरुर जीतकर लाएंगे।

भाई अब भी मजदूरी करते हैं, घर को थोड़ा सुधारा

शिवराज के भाई मुन्नालाल और कालूराम अब भी घरों में पेंट का काम करते हैं। मां अब मजदूरी पर नहीं जाती और घर पर ही रहती हैं। मुन्नालाल की पत्नी मीरा भी उनका हाथ बंटाती है। परिवार ने अपना मकान नहीं बेचा था। यह पहले टूटा फूटा था, लेकिन अब इसे थोड़ा सा सही करवा लिया गया है। छोटे भाई की उपलब्धि पर पूरा परिवार खुश है। मां निर्मला देवी बताती हैं कि मेरे छोटे बेटे में प्रतिभा है, लेकिन उस प्रतिभा को निखारने वाले उसके दोनों बड़े भाई और भाभी हैं। वहीं बड़े भाई मुन्नालाल बताते हैं कि हमने हमेशा यही कोशिश की कि शिवराज अपना हर सपना पूरा करे। आज उसकी उपलब्धियों पर गर्व होता है।

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