आजादी के अमृत वर्ष में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश भर में पर्यावरण और स्वास्थ्य हित में एकल उपयोग प्लास्टिक पर लगाया गया रोक आत्मनिर्भरता को भी नई गति देगा। एक जुलाई से देशभर में ऐसे प्लास्टिक के निर्माण, आयात भंडारण और उपयोग पर रोक से इस व्यवसाय से जुड़े लोगों में भले ही आक्रोश हो। लेकिन बिहार का एकलौता रामसर साइट काबर और आसपास के सैकड़ों परिवार इससे काफी खुश नजर आ रहे हैं।
खुशी का कारण है काबर झील परिक्षेत्र के हजारों बीघा में खिलने वाला कमल। इन्हें लग रहा है कि पूरे देश को 2014 से खिला खिला रखने वाला प्रतीक ”कमल” का असली स्वरूप अब हमारे आत्मनिर्भरता का साधन बनेगा। एक समय था जब किसी भी भोज में पूरन (कमल) के पत्ते पर ही भोज किया जाता था, लोग बड़े चाव से प्रकृति के इस थाली में भोजन करते थे। बाद के बदलते जमाने में कमल के पत्ते की जगह जंगली पत्ते ने ले लिया और जंगल से हाथ एवं मशीन द्वारा बने पत्तल आने लगे। धीरे-धीरे वह भी समाप्त हो गया और इन प्राकृतिक थालियों की जगह ले लिया थर्माकोल से बने थाली, प्लेट और ग्लास ने।
बाजार में आसानी से सब जगह उपलब्ध होने के कारण लोगों ने थर्मोकोल के पत्ते को अपनाया। लेकिन इस अप्राकृतिक और कैंसर सहित विभिन्न जानलेवा बीमारियों के वाहक पर अब जब रोक लग गई है तो एक बार फिर कमल के पत्ते की ओर लोगों का ध्यान गया है। सरकार के इस निर्णय से काबर के छह माह के मालिक कहे जाने वाले मछुआरा परिवार में खुशी की लहर है। काबर के पानी के किसान मछुआरे रामाधार सहनी, विनोद सहनी, घूटर सहनी, राम उदगार सहनी आदि ने बताया कि आज से 15-20 साल पहले तक शादी विवाह और श्राद्ध कर्म सहित सभी प्रकार के भोज में पूरन के पत्ते की काफी डिमांड रहती थी। काम से दो-तीन दिन पहले ही आकर लोग पत्ता का ऑर्डर दे देते थे, इसके बाद हम सब पानी में जाकर नियत समय पर पत्ता तोड़कर तैयार कर लेते थे। लेकिन कुछ वर्षों से साल में एक-दो लोग ही यह पता खोजने आते हैं।
इसकी खासियत थी कि इसमें अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होता था, नाम मात्र के खर्च पर यह कहीं भी उपलब्ध हो जाता था तथा अन्य प्रचलित पत्तल की अपेक्षा शुद्ध था। 2000 के दशक तक ग्रामीण अंचलों में होने वाले शादी समारोह सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि समाजिक सहभागिता होती थी। पूरन के पत्तों का जुगाड़ करने की जिम्मेवारी हम मछुआरा समुदाय के जिम्मे होता था। जिसके घर समारोह होता था वह इन पत्ते के बदले पत्ते लाने वाले को पैसा के साथ नेग में अनाज एवं कपड़े भी देते थे। इस प्राकृतिक थाली पर चावल-दाल की जो सोंधी खुशबू आती थी, वह खाने वालों की भूख बढ़ा देते थे।
भोज में लोग पीने के लिए अपने घर से लोटा लेकर जाते थे और पानी जब पूरन के पात पर छिड़का जाता था तो भीनी खुशबू के साथ एक अलग दृश्य भी दिखता था। अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्लास्टिक और थर्माकोल के उपयोग पर रोक लगाई है तो यह रोक हम सब के लिए वरदान साबित होगा, हमारे परिवार के लोगों को अब मजदूरी करने के लिए परदेस नहीं जाना पड़ेगा, हम गांव में ही रह कर आर्थिक रूप से सुदृढ़ होंगे। रामसर साइट घूमने आने वाले लोग कमल का सौंदर्य देखकर मंत्रमुग्ध होते थे, अब उसका पत्ता आय का साधन बनेगा।
आशा खबर / शिखा यादव