चुनाव नतीजे भाजपा की रीति-नीति और रणनीति के सफल होने का सुबूत भी हैं। भाजपा के गरीब कल्याण योजनाओं से एक बहुत बड़े मतदाता वर्ग को अपने साथ स्थायी तौर पर जोड़ने के दावे को भी सही साबित कर दिया है। बता दिया है कि 2014 से लगातार सफलता की राह पर आगे बढ़ रही भाजपा न सिर्फ अपने समर्थन को बरकरार रखने के लिए निरंतर काम कर रही है, बल्कि उसमें इजाफा भी कर रही है।
लोकसभा की आजमगढ़ और रामपुर सीटों के उपचुनाव के नतीजों में दूरगामी सियासी संदेश छिपे हैं। जिन्हें समझना न सिर्फ दिलचस्प है, बल्कि भविष्य की सियासत के लिहाज से जरूरी भी है। कारण, यह चुनाव सिर्फ दो सीटों के न होकर सपा के दो प्रमुख नेताओं की पहचान व पकड़ का भी था।
ये दोनों सीटें ऐसी थी जिनकी पहचान प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल सपा के मुखिया अखिलेश यादव एवं पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां से है। जो अब तक इन सीटों पर न सिर्फ सामाजिक समीकरण के लिहाज से काफी मजबूत माने जाते थे, बल्कि पार्टी की जीत के परंपरागत फॉर्मूले एमवाई (मुस्लिम-यादव) के भी प्रतीक रहे हैं। लेकिन दोनों सीटों पर सपा की हार और भाजपा की जीत ने भविष्य की सियासत के लिहाज से काफी कुछ संकेत दे दिया है। बता दिया है कि विपक्ष खासतौर से सपा को अपने अंतर्विरोधों से उबरे बिना, पुराने राजनीतिक मॉडल एवं चेहरों तथा टोटकों की सियासत से छुटकारा पाए बिना भाजपा पर जीत मिलना काफी मुश्किल है।
नतीजों के बाद सपा की तरफ से सरकार पर सत्ता के दुरुपयोग का आरोप लगाया जा रहा है। आजम ने तो कुछ पोलिंग स्टेशनों पर काफी कम मतदान को मुद्दा बनाकर भाजपा की जीत पर सवाल उठाते हुए सत्ता के दुरुपयोग की बात कही है। वहीं, आजमगढ़ में भाजपा को लोकसभा के आम चुनाव में मिले वोटों से इस बार मिले कम वोट का तर्क देकर अपने जनाधार की मजबूती की बात कही जा रही है। दोनों सीटों पर भाजपा की जीत ने मुलायम, अखिलेश और आजम जैसे नेताओं की अपने गढ़ में कमजोर होती पकड़ का संकेत दे दिया है। चुनाव नतीजे भाजपा की रीति-नीति और रणनीति के सफल होने का सुबूत भी हैं। भाजपा के गरीब कल्याण योजनाओं से एक बहुत बड़े मतदाता वर्ग को अपने साथ स्थायी तौर पर जोड़ने के दावे को भी सही साबित कर दिया है। बता दिया है कि 2014 से लगातार सफलता की राह पर आगे बढ़ रही भाजपा न सिर्फ अपने समर्थन को बरकरार रखने के लिए निरंतर काम कर रही है, बल्कि उसमें इजाफा भी कर रही है। दूसरी तरफ सपा पुराने टोटकों और चेहरों के भरोसे बैठी है। जो 2024 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से उसके लिए और मुश्किलें बढ़ा सकता है।
ये वजह तो नहीं
राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि इन नतीजों के पीछे भाजपा की चुस्त एवं समय के लिहाज से बदलती रणनीति तथा राजनीतिक मॉडल में समयानुकूल बदलाव का कमाल है। पर, इससे ज्यादा भूमिका चुनाव के दौरान सतह पर उभरे सपा के अंतर्विरोधों एवं अपरिपक्व निर्णयों की है। इनका विश्लेषण किए बिना न तो इन नतीजों के निहितार्थों को समझा जा सकता है और न प्रदेश की सियासत की भविष्य की दिशा व दशा को। ये सीटें भाजपा के लिए काफी मुश्किल मानी जाती रही हैं। खासतौर से यह देखते हुए कि यादव-मुस्लिम के मजबूत समीकरणों वाली आजमगढ़ सीट के तहत आने वाली विधानसभा सीटों पर हाल ही में हुए चुनाव में भाजपा का खाता भी नहीं खुला था। रामपुर में भी भाजपा की जीत का इतिहास बहुत अच्छा नहीं रहा। इस बार आजमगढ़ में रमाकांत यादव भी भाजपा के साथ नहीं थे। वहीं, जेल से रिहा होने के बाद रामपुर में कुछ लोग आजम के साथ सहानुभूति की लहर का दावा कर रहे थे। जेल से बाहर आने पर जिस तरह उनके स्वागत में भीड़ उमड़ी थी। उससे ये दावे सही भी लग रहे थे। लेकिन नतीजे इसके एकदम उलट आए हैं।
उपचुनाव में मिली जीत न सिर्फ भाजपा का मनोबल बढ़ाने वाली है, बल्कि यह भी बताने वाली है कि धीरे-धीरे ही सही लेकिन भाजपा उन क्षेत्रों में भी जीत के समीकरणों का ताना-बाना तैयार करने में सफल हो रही है जो अब तक उसके लिए दुरूह थी। दूसरी तरफ सपा एम-वाई समीकरण पर ही जीत का भरोसा किए बैठी रही। नए मतदाता वर्ग को जोड़ने के उसके प्रयास स्थायी नहीं हैं। बीच-बीच में ब्राह्मण व अति पिछड़ी जातियों का कार्ड जरूर खेलती है, लेकिन कुछ ही दिन बाद वह फिर एमवाई फॉर्मूले पर काम करने लगती है। उधर, भाजपा न सिर्फ मुसलमानों के बीच पहले जैसा विरोध खत्म करने की ओर बढ़ रही है, बल्कि यादवों के बीच भी कुछ पैठ बढ़ाने में सफल रही है। गरीब कल्याण योजनाओं के साथ हिंदुत्व और गैर यादव तथा गैर जाटव समीकरणों पर काम करते हुए भाजपा अपना वोट बढ़ाने पर निरंतर काम कर रही है। जिसका उसे लाभ भी मिल रहा है ।
ये कैसी है अखिलेश की रणनीति
इन परिणामों पर भाजपा की कोशिशों का सीधा असर भले ही पड़ता न दिख रहा हो, लेकिन राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन की रणनीति से इसे ठीक से समझा जा सकता है। सपा के राज्यसभा के तीन उम्मीदवारों में जहां कोई आजम का करीबी तो कोई प्रो. रामगोपाल का और कपिल सिब्बल जैसे नेता भविष्य की जरूरत के लिहाज से समायोजन पाते दिखे। वहीं, भाजपा की सूची में बाबूराम निषाद, संगीता यादव, बनवारी लाल दोहरे, मिथिलेश जैसे चेहरे सामाजिक समीकरणों को मजबूती देते दिखे। वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र भट्ट कहते हैं कि गैर यादव और गैर जाटव समीकरणों पर राजनीति करने वाली भाजपा पिछले कुछ समय से यादव-जाटव समीकरणों को भी मजबूत कर रही है। लेकिन सपा मुस्लिम-यादव में ही उलझी है। सपा ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए परशुराम की बात तो करती है, लेकिन जैसे ही ज्ञानवापी जैसे मुद्दे आते हैं तो वह फिर पुरानी राह पर चली जाती है। सपा को यदि भाजपा से पार पाना है तो उसे भाजपा की ओर से बिछाई गई समग्र हिंदुत्व की नई पिच पर खेलने का अभ्यास नए सिरे से करना होगा। सिर्फ हिंदुत्व के विरोध से मुस्लिमों को खुश करने की नीति छोड़नी होगी। यादव के साथ दूसरे लोगों को भी जोड़ना होगा। पर, अखिलेश के तेवर और अब तक की भूमिका को देखते हुए फिलहाल इसकी उम्मीद कम है कि वे खुद को या पार्टी की बदल पाएंगे।
ऐसे तो 2024 में भाजपा का मुकाबला मुश्किल होगा
सिर्फ नीति और रणनीति के स्तर पर ही नहीं, बल्कि सपा नेताओं की भूमिका को लेकर भी इस चुनाव ने काफी कुछ कह दिया है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा से आरपार करने का दावा करने वाले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव आखिर उपचुनाव में प्रचार के लिए क्यों नहीं गए? वह भी तब जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तथा भाजपा के प्रदेश के नेता उपचुनाव को प्रतिष्ठा मानकर लड़ रहे थे। आखिर वे क्या वजहें रहीं जिनके कारण अखिलेश रामपुर एवं आजमगढ़ नहीं गए। आजमगढ़ सीट तो उनके ही त्यागपत्र देने से रिक्त हुई थी। यही नहीं, आजमगढ़ में उनके ही परिवार के सदस्य धर्मेंद्र यादव लड़ रहे थे। फिर भी वे प्रचार के लिए आजमगढ़ नहीं गए। उन्होंने रामपुर में भले ही आजम के दबाव में टिकट दिया था। पर, जिस तरह जेल से निकलने के बाद आजम उनको लेकर नाराजगी व्यक्त कर रहे थे उसको देखते हुए अखिलेश इस चुनाव के दौरान रामपुर में प्रचार करके आजम से रिश्ते सुधार सकते थे। पर, वे नहीं गए। इससे तो यही लगता है कि दोनों ही टिकट अखिलेश ने किसी दबाव में दिए थे। राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि अखिलेश ने यदि दबाव में भी ये टिकट दिए थे तो भी उन्हें प्रचार के लिए निकलना चाहिए था। ऐसा न करके उन्होंने राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय दिया है। इसका असर आगे दिखेगा। जो भी हो लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया है कि सपा के भीतर के अंतर्विरोध खत्म नहीं हुए हैं। अगर यही हाल रहा तो सपा के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा का मुकाबला करना मुश्किल होगा।