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संघ को क्यों पड़ रही है मुसलमानों के साथ की जरूरत? जानें मोहन भागवत के बयान के मायने

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आरएसएस हमेशा हिंदू राष्ट्र की बात करता रहा है। वह यह जानता है कि इसी देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी मुसलमानों को अपने भरोसे में लिए बिना यह काम नहीं किया जा सकता। इसीलिए संघ प्रमुख मुसलमानों को बार-बार यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक है।

Why does the RSS need support from Muslims Know the meaning of Mohan Bhagwat's statement

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने लखनऊ के एक कार्यक्रम में जोर देकर कहा है कि संघ के स्वयंसेवकों को मुसलमान-ईसाई अल्पसंख्यकों के पास पहुंचना चाहिए। उन्हें न केवल उनकी बात समझने की कोशिश करनी चाहिए, बल्कि उनकी समस्याओं और भावनाओं को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। यह कोई पहली बार नहीं है कि जब संघ प्रमुख ने मुसलमानों से रिश्ते बेहतर करने की बात कही है।

इसके पहले वे जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी और ऑल इंडिया मुस्लिम इमाम ऑर्गनाइजेशन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी से मुलाकात कर चुके हैं। वे हिंदू-मुसलमानों का डीएनए भी एक बता चुके हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया है कि मुसलमानों के बिना हिंदुस्तान अधूरा है। ये अलग बात है कि यह बात भगवा खेमे में ही अनेक लोगों को पसंद नहीं आ रही थी।

इससे पहले भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में गोलवलकर के विचारों पर भी सवाल उठाए थे और उन्हें मौजूदा समय में अप्रासंगिक और अस्वीकार्य करार दिया था जिसे लेकर संघ पर सबसे ज्यादा हमला बोला जाता रहा है। संघ के जानकार इसे संघ में बड़े बदलाव के तौर पर देख रहे हैं।

इन तमाम बयानों और घटनाओं के बीच एक सवाल लगातार उठ रहा है कि एक हिंदूवादी संगठन आरएसएस को मुसलमानों के ‘साथ’ की जरूरत क्यों महसूस हो रही है? जब अपनी हिंदूवादी नीति पर चलते हुए वह देश की बहुसंख्यक आबादी का समर्थन पा रहा है, और वह न केवल देश-विदेश में विस्तार पाने में सफल रहा है, बल्कि केंद्र में लगातार हिंदूवादी सरकार बनवाने में भी सफल हुआ है। ऐसे में उसे अपनी नीतियों में बदलाव की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है?

मुसलमानों के सहयोग के बिना पूरा नहीं होगा हिंदू राष्ट्र का सपना
आरएसएस हमेशा हिंदू राष्ट्र की बात करता रहा है। वह यह जानता है कि इसी देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी मुसलमानों को अपने भरोसे में लिए बिना यह काम नहीं किया जा सकता। इसीलिए संघ प्रमुख मुसलमानों को बार-बार यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक है। समय के अंतराल में दोनों की पूजा-पद्धतियां भले ही अलग-अलग हो गई हैं, लेकिन उनके पूर्वज और उनकी संस्कृति साझी है। यदि मुसलमान इस्लाम का ऐसा भारतीयकरण करने के लिए तैयार हो जाए जिसमें वह अपना धर्म को मानने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को भी अपने से जुड़ा महसूस करे तो संघ के इस वृहत्तर लक्ष्य को हासिल करने में कोई बाधा नहीं रहेगी।

केंद्र सरकार के प्रति आशंका दूर करने की आवश्यकता
दूसरी बात, केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार वैश्विक स्तर पर अपनी भूमिका की तलाश कर रही है। लेकिन यदि घरेलू मोर्चे पर ही एक बड़ा वर्ग उसे आशंका की दृष्टि से देख रहा हो तो वैश्विक स्तर पर उसकी आवाज में वह दम नहीं होगा जिसकी आवश्यकता होती है। लिहाजा भारत को विश्वगुरु बनाने की महत्वाकांक्षा पालने वाला संघ हर हाल में चाहेगा कि मुसलमानों के मन में उसको लेकर चल रही तमाम आशंकाएं समाप्त हो जाएं। संघ प्रमुख के बयान और केंद्र सरकार की मुसलमानों तक पहुंचने की कोशिश इस दिशा में सार्थक परिणाम दे सकती है।

इसी तरह मोदी की अंतरराष्ट्रीय छवि मजबूत बनाए रखने के लिए भी यह आवश्यक है कि घरेलू मोर्चे पर शांति-सौहार्द्र बना रहे। यह तभी हो सकता है जब देश का अल्पसंख्यक वर्ग स्वयं को सरकार के साथ और संरक्षण में महसूस करे। इसके लिए भी केंद्र और संघ को मुसलमानों का साथ लेने की आवश्यकता महसूस हो रही है।

भाजपा की मजबूती के लिए भी अल्पसंख्यकों का साथ जरूरी
संघ से जुड़े जानकारों का मानना है कि दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के चरम से गुजर रहे हैं। 2014 और 2019 में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद भी भाजपा 38 प्रतिशत वोटों के आसपास ही आकर ठहर गई है। सबसे प्रचंड लोकप्रियता के दौर में भाजपा और कांग्रेस के वोटों में अभी भी 16-17 प्रतिशत से कम का ही अंतर है। किसी भी समय एक मुद्दे के उभार से ये समीकरण बदल भी सकता है।

फिलहाल अधिकांश हिंदू मतदाताओं के बीच भगवा खेमे की स्वीकृति अपने चरम पर नजर आ रही है और अब इसके बढ़ने की संभावना नहीं के बराबर है ऐसे में वोटों की यह बढ़त बरकरार रखने के लिए दूसरे वर्गों के वोटों की जरूरत है। यदि मुसलमानों  और ईसाइयों के वोट शेयरों में एक छोटा हिस्सा भी भाजपा की तरफ आता है तभी यह लक्ष्य पाया जा सकता है।

संघ प्रमुख कई बार पारंपरिक सोच को तोड़कर आगे बढ़ने की बात भी करते हैं, कभी थर्ड जेंडर को साथ लाने तो कभी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की बात भी करते हैं। जानकार बताते हैं कि यदि संघ को अपनी वैश्विक भूमिका बनानी है तो वह आधुनिक समाज में स्वीकार्य मानदंडों से खुद कोअलग नहीं रख सकता। संघ प्रमुख के बयानों को इसके साथ भी जोड़कर देखा जाना चाहिए।

‘संघ को मुसलमानों से कोई परेशानी नहीं है’ 
आरएसएस के मामलों के जानकार प्रो. अवनिजेश अवस्थी ने अमर उजाला से कहा कि संघ हमेशा खुद को सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन कहता है। ऐसे में उसकी सबसे बड़ी प्राथमिकता समाज में शांति-सद्भाव बनाए रखने की रहती है। यह तभी हो सकता है जब देश में रह रहे हर समुदाय के लोग इस देश, समाज, संस्कृति को अपना समझें और मानें। संघ प्रमुख का बयान इसी ओर इशारा करता है।
अवनिजेश अवस्थी ने कहा कि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत के मुसलमान कहीं बाहर से नहीं आए हैं। वे यहीं के हैं और समय के साथ उनकी धार्मिक विचारधारा में परिवर्तन आया है। लेकिन धार्मिक पहचान बदलने से उनके पूर्वज और उनकी संस्कृति इस देश से अलग नहीं हो सकती। देश की आंतरिक शांति के लिए यह जरूरी है कि मुसलमानों को भी मुख्य धारा के साथ ही रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि संघ प्रमुख का बयान बेहद सकारात्मक और देश को नई ऊंचाई देने वाला है।

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