पटना में होने वाला विपक्ष का सम्मेलन अहम हो सकता है। सम्मेलन में नेतृत्व का मुद्दा सुलझाना आसान नहीं है। पटना में 23 जून को होने वाली रैली में राजद, झामुमो, सपा, तृणमूल कांग्रेस, भारत राष्ट्र समिति, डीएमके और एनसीपी सरीखी क्षेत्रीय शक्तियों के साथ ही कांग्रेस का शामिल होना लगभग तय है।
पटना में होने वाला सम्मेलन लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी एकता का अहम पड़ाव हो सकता है, पर इसके जरिये नेतृत्व का मुद्दा सुलझाना आसान न होगा। जिस तरह से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव विपक्षी दलों से साथ मांग रहे हैं, उसका एक पहलू यह भी है कि क्या वह देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में बिग बॉस की भूमिका में कुबूल किए जाएंगे। समाजवादी धारा के अपने तर्क हैं तो कांग्रेसी भी राज्य और केंद्र के चुनाव में फर्क समझने की बात कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के नेता नीतीश कुमार विपक्षी एकता के सूत्रधार बने हुए हैं। पटना में 23 जून को होने वाली रैली में राजद, झामुमो, सपा, तृणमूल कांग्रेस, भारत राष्ट्र समिति, डीएमके और एनसीपी सरीखी क्षेत्रीय शक्तियों के साथ ही कांग्रेस का शामिल होना लगभग तय है।
सपा और एनसीपी के सिवाय ये क्षेत्रीय शक्तियां अपने प्रभाव वाले राज्यों में सरकार चला रही हैं। जबकि कांग्रेस ने हाल ही में हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक का चुनाव जीतकर मजबूती के साथ अपने पुनरोत्थान का संदेश दिया है।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है कि जो क्षेत्रीय शक्ति जिस राज्य में मजबूत है, भाजपा को हराने की रणनीति पर काम करने वाले शेष दलों को उसका साथ देना चाहिए। इसके लिए वे शेष दलों को बड़ा दिल दिखाने की बात भी कह रहे हैं।
जाहिर है कि यूपी में विधानसभा चुनाव से पहले बना रालोद और सपा का गठबंधन बरकरार है। बसपा का हाथी किस ओर बढ़ेगा, कयास लगाए जा रहे हैं, पर कोई मुतमइन है। वहीं, बसपा सुप्रीमो मायावती ऐन वक्त पर ही अपने पत्ते सार्वजनिक करने के लिए पहचानी जाती हैं। इसलिए अखिलेश का बड़ा दिल दिखाने का इशारा कांग्रेस की तरफ ही माना जा रहा है।
राज्य और केंद्र के चुनाव की प्रकृति अलग-अलग : प्रमोद कृष्णम
प्रियंका गांधी के राजनीतिक सलाहकार और एआईसीसी सदस्य प्रमोद कृष्णम कहते हैं कि राज्य और केंद्र के चुनाव की प्रकृति अलग-अलग होती है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस ही है। कोई भी क्षेत्रीय दल उस स्थिति में नहीं कि उसके नेतृत्व को इन राष्ट्रीय चुनाव में राष्ट्र स्तर स्वीकार किया जाए।
प्रियंका गांधी के राजनीतिक सलाहकार और एआईसीसी सदस्य प्रमोद कृष्णम कहते हैं कि राज्य और केंद्र के चुनाव की प्रकृति अलग-अलग होती है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस ही है। कोई भी क्षेत्रीय दल उस स्थिति में नहीं कि उसके नेतृत्व को इन राष्ट्रीय चुनाव में राष्ट्र स्तर स्वीकार किया जाए।
कांग्रेस के किसी नेता को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित करके ही पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती दी जा सकती है। कांग्रेस ने तो हमेशा क्षेत्रीय पार्टियों को आगे बढ़ाया है। अलबत्ता यह जरूर हुआ है कि जब-जब केंद्र की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियां ताकतवर हुई हैं, उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ भाजपा को मजबूत करने का काम किया है।
राष्ट्रीय स्थिति से नहीं, जमीनी हकीकत से लड़ा जाता है चुनाव : संजय लाठर
विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष रहे सपा के संजय लाठर कहते हैं कि राजनीति में काल्पनिक बात नहीं होनी चाहिए। लोकसभा क्षेत्र में सिर्फ लड़ाई में आने भर के लिए किसी भी दल के प्रत्याशी के लिए न्यूनतम 5 लाख वोट हासिल करने होते हैं।
विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष रहे सपा के संजय लाठर कहते हैं कि राजनीति में काल्पनिक बात नहीं होनी चाहिए। लोकसभा क्षेत्र में सिर्फ लड़ाई में आने भर के लिए किसी भी दल के प्रत्याशी के लिए न्यूनतम 5 लाख वोट हासिल करने होते हैं।
कांग्रेस के जो नेता इतने वोट हासिल करते थे, उनमें से अधिकतर अब कांग्रेस छोड़ चुके हैं। चुनाव राष्ट्रीय स्थिति से नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत से लड़ा जाता है। यूपी में सपा ही ऐसी पार्टी है, जो भाजपा को टक्कर दे सकती है। इसलिए विपक्षी दलों को सपा को आगे करते हुए ही यहां चुनाव लड़ना चाहिए।
”गिव एंड टेक” के फॉर्मूला ही आएगा काम : प्रो. रवि
समकालीन यूपी के विश्लेषक और जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रो. रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि कि अगर विपक्षी दल, भाजपा को सत्ता से हटाना चाहते हैं तो उन्हें उसे काउंटर करने के लिए एक मजबूत नैरेटिव (पक्ष) लाना होगा।
समकालीन यूपी के विश्लेषक और जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रो. रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि कि अगर विपक्षी दल, भाजपा को सत्ता से हटाना चाहते हैं तो उन्हें उसे काउंटर करने के लिए एक मजबूत नैरेटिव (पक्ष) लाना होगा।
उपचुनाव भी यह साबित कर रहे हैं कि भाजपा यूपी में अभी भी मजबूत स्थिति में है। इसलिए विपक्षी दलों को एकता के लिए किसी अन्य सिद्धांत के बजाय ”गिव एंड टेक (एक हाथ से लो, दूसरे हाथ से दो)” के फॉर्मूले पर अमल करना चाहिए। थोड़ी सी भी दरार उनकी बड़ी चूक साबित हो सकती है।