विपक्षी एकता के लिए कोशिशें तेज हो गई हैं। 23 जून को होने वाली विपक्षी दलों की बैठक से भाजपा के आलोचकों को काफी उम्मीदें हैं, लेकिन कई मुद्दे हैं, जिन पर सहमति बनाना मुश्किल होगा। वहीं, विपक्षी एकजुटता को देखते हुए भाजपा भी अपनी तैयारियों में जुट गई है और एनडीए को फिर से मजबूत किया जा रहा है। आने वाले दिनों में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, जानें उस पर विश्लेषकों की राय…
खबरों के खिलाड़ी’ की नई कड़ी में एक बार फिर आपका स्वागत है। इस हफ्ते की बड़ी राजनीतिक खबरों के सधे विश्लेषण के साथ एक बार फिर हम आपके सामने प्रस्तुत हैं। इस दिलचस्प चुनावी चर्चा को अमर उजाला के यूट्यूब चैनल पर शनिवार रात 9 बजे और रविवार सुबह 9 बजे देखा जा सकता है।
इस हफ्ते की सबसे बड़ी सुगबुगाहट विपक्षी एकता की बैठक को लेकर है, जो पटना में होने वाली है। बैठक से पहले ही जेडीयू की साथी ‘हम’ ने महागठबंधन का साथ छोड़ दिया है। वहीं, एनडीए में भी सबकुछ ठीक नहीं है और महाराष्ट्र के सीएम एकनाथ शिंदे भी भाजपा से नाराज बताए जा रहे हैं। विपक्षी एकता को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या शरद पवार बड़ी भूमिका में दिखेंगे और क्या नीतीश कुमार को विपक्षी एकता के लिए संयोजक बनाया जा सकता है…? इन्हीं अहम मुद्दों पर चर्चा के लिए इस बार हमारे साथ पंकज शर्मा, विनोद अग्निहोत्री, सुमित अवस्थी, पूर्णिमा त्रिपाठी, हर्षवर्धन त्रिपाठी, शिवम त्यागी जैसे वरिष्ठ विश्लेषक मौजूद रहे। पढ़िए इनकी चर्चा के अहम अंश…
सुमित अवस्थी
’23 जून को पटना में होने वाली बैठक से क्या होगा, इस पर सभी की नजरें हैं। सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस बैठक में विपक्ष कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना सकता है या फिर किसी नेता को संयोजक की जिम्मेदारी दी जा सकती है? कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि यह बस एक भानुमति का कुनबा है, जहां कुछ नहीं होगा और बस पीएम मोदी को रोकने के लिए ही विपक्षी पार्टियां एक हो रही हैं। पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी और ममता के बीच तनातनी चल रही है, वहीं बिहार में मांझी और नीतीश की महत्वाकांक्षाएं टकरा रही हैं, इसे लेकर भी विपक्षी एकता सवालों के घेरे में है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच एजेंसियों की कार्रवाई के डर को भी विपक्षी एकता की वजह बताया जा रहा है। हाल ही में प्रियंका गांधी मध्य प्रदेश में नर्मदा पूजन करती नजर आईं। कर्नाटक में जहां कांग्रेस सेक्युलरिज्म की बात कर रही थी, वही कांग्रेस, मध्य प्रदेश में हिंदुत्व के पाले में दिख रही है।’
‘विपक्ष की पटना में होने वाली बैठक अभी शुरुआती चरण है और फिलहाल ये ही काफी है कि पार्टियां साथ आ रही हैं। जल्द ही विपक्षी एकता की रूपरेखा भी सामने आ जाएगी। पटना में होने वाली बैठक में मुद्दों पर सहमति बन सकती है। मोर्चे में कौन-कौन शामिल होगा और किसे संयोजन बनाने की जिम्मेदारी दी जाएगी, वो नाम भी तय हो सकता है। नीतीश कुमार या शरद पवार में से कोई संयोजक की भूमिका निभा सकते हैं। गठबंधन की सरकारों में छोटी पार्टियों की मांगों को ब्लैकमेलिंग कहना गलत है। वह लोकतंत्र की समावेशी राजनीति है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हमारा संघीय लोकतंत्र है, उसमें सभी को प्रतिनिधित्व देना जरूरी है। सोनिया गांधी ने बहुत साल पहले संगम में डुबकी लगाई थी और जब वे रायबरेली जाती थीं तो हवन में शामिल होती थीं। कांग्रेस ने कभी हिंदुत्व से दूरी नहीं बनाई, लेकिन उसे राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाया।’
पंकज शर्मा
‘विपक्षी एकता के लिए पीएम मोदी को सत्ता से हटाने से ज्यादा रचनात्मक बात क्या हो सकती है! विपक्ष की 23 जून को होने वाली बैठक बहुत अहम है। राज्यों में जो मतभेद हैं, वो अपनी जगह हैं, लेकिन जब लोकसभा चुनाव होगा तो विपक्ष के तमाम दलों के पास एकजुट होने के अलावा कोई चारा नहीं है। एक जीतनराम मांझी के नीतीश का साथ छोड़ने से विपक्षी एकता पर सवाल उठाना सही नहीं है। विपक्षी दलों के डेढ़ हजार विधायक हैं और 200 से ज्यादा सांसद है। ये मामूली संख्या नहीं है। विपक्षी एकता से भाजपा का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। विपक्ष ने 450 लोकसभा सीटों पर एक साझा उम्मीदवार खड़ा करने की योजना बनाई है। इसी वजह से अमित शाह विभिन्न राज्यों के दौरे कर रहे हैं। विभिन्न डायस्पोरा जैसे तमिल डायस्पोरा, तेलगु डायस्पोरा को एकजुट करने की कोशिश है। कांग्रेस ने हमेशा हिंदुत्व को अपने साथ रखा है लेकिन कट्टर हिंदुत्व से उसे परेशानी है।’
शिवम त्यागी
‘घर में जब सारे ज्ञानी बन जाएं तो उनका साथ रहना मुश्किल है। विपक्ष में भी ऐसा हाल है, जहां सभी ज्ञानी हैं। हर नेता की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। तेजस्वी सीएम बनना चाहते हैं, राहुल पीएम बनना चाहते हैं। विपक्ष को लगता है कि जोड़-तोड़ करके वह सत्ता पा सकते हैं। हालांकि, जोड़तोड़ से सरकार बनाना गलत नहीं है, लेकिन 2014 के बाद से तस्वीर बदल गई है और लोग भी यह समझते हैं 140 करोड़ का देश चलाने के लिए पूर्ण बहुमत का जनादेश होना जरूरी है।’
‘विभिन्न डायस्पोरा को एकजुट करने की भाजपा की प्लानिंग पांच साल पुरानी है। तमिल संस्कृति का बार-बार जिक्र यूं ही नहीं किया जा रहा है। भाजपा घबराई हुई नहीं है बल्कि यह पूरी रणनीति के तहत हो रहा है। पूर्ण बहुमत की सरकारें ज्यादा बेहतर फैसले ले सकती हैं। पूर्ण बहुमत की सरकार ताकतवर तो होती हैं, नेहरू जी की सरकार में आठ बार अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) लगाया गया। इंदिरा गांधी के समय में इमरजेंसी लगी, लेकिन बीते 10 सालों में ऐसे फैसले नहीं हुए। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लोग बजरंगबली बनकर घूमेंगे क्योंकि मुसलमान मतदाता वहां प्रभावी नहीं है। कांग्रेस में हिंदुत्व बिल्कुल नहीं है। राम मंदिर का जिस तरह से कांग्रेस और उसके नेताओं ने विरोध किया तो उनमें हिंदुत्व होने की बात ही बेमानी है।’
विनोद अग्निहोत्री
‘इस देश ने गठबंधन और पूर्ण जनादेश, दोनों तरह की सरकारें देखी हैं और दोनों के फायदे नुकसान रहे हैं। लेकिन क्षेत्रीय आकांक्षाओं को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। हालांकि, गठबंधन का नेतृत्व किसी बड़े दल को करना चाहिए, तभी कामयाबी मिल सकती है। एजेंसियों के डर से विपक्ष के एक होने की बात सिर्फ एक कारण नहीं है। भ्रष्टाचार के दाग तो हर दल पर हैं, लेकिन जो विपक्ष में है, वही भ्रष्टाचारी है और जो सत्ता में है, वो सब पाक-साफ हैं? ये सही नहीं है। आज भाजपा एनडीए खड़ा करने की बात कर रही है तो क्यों कर रही है? मांझी का इतिहास बार-बार पार्टी बदलने का रहा है। 23 जून की बैठक में संयोजक के नाम पर सहमति बन सकती है और एकजुटता के लिए कमेटी का गठन हो सकता है। हालांकि सीटों के बंटवारे पर अभी सहमति बनने में समय लगेगा।’
हर्षवर्धन त्रिपाठी
‘भाजपा के नेता आजकल एक टिफिन पार्टी कर रहे हैं, जिसमें वह टिफिन पर चुनावी मंथन करते हैं। भाजपा में सभी की टिफिन भरी हुई है लेकिन विपक्ष की टिफिन खाली है, जब किसी के पास कुछ होगा, तभी तो वो दूसरों को देगा। उदाहरण के तौर पर, एक व्यक्ति ने अपने टिफिन से रसमलाई निकालकर दी, लेकिन दूसरे ने सूखी रोटी पकड़ा दी, यही विपक्ष की समस्या है। लोकतंत्र में जब अपने बजाय दूसरे से शक्ति हासिल करने की कोशिश होती है, तो समस्या होती है। केसीआर जब पटना गए थे तो उसके बाद ही पार्टी का नाम टीआरएस से बदलकर बीआरएस कर लिए, विपक्ष की ये जो महत्वकांक्षा है, ये एकता के लिए समस्या है। नीतीश कुमार इतनी बुरी स्थिति में आ गए हैं कि वह पहली बार कुर्मी-कोरी सम्मेलन कर रहे हैं। इसका मतलब है कि उनका प्रभाव कम हो रहा है। भाजपा ने 370 हटाने की बात की, वो कर दिया। राम मंदिर बना दिया, लेकिन विपक्ष के पास क्या मुद्दा है? भाजपा देश को एक साथ लेकर चलने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस में इतनी हिम्मत नहीं है कि तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति को चुनौती दे सके, उल्टा द्रविड़ राजनीति की पिछलग्गू बन गई है।’