लैंगिक असमानता पर दकियानूसी सोच पिछले एक दशक में जरा-भी नहीं बदली जबकि इस दौरान न केवल महिला अधिकार समूह तेजी से बढ़े हैं बल्कि टाइम्स अप और मीटू जैसे अभियान भी महिलाओं की मुखर आवाज बने।
महिलाएं कई मायनों में पुरुषों से बराबरी नहीं कर सकती हैं। पुरुषों की तुलना में वे अच्छी राजनेता या फिर उतनी काबिल उद्यमी नहीं हो सकतीं। यह ऐसी दकियानूसी सोच हैं, जिसमें पिछले एक दशक में कोई बदलाव नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट कहती है कि आज भी 10 में से नौ यानी 90 फीसदी लोग लैंगिक समानता को लेकर ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं। सिर्फ 10.3 फीसदी लोग (11.5 महिलाएं और 8.9 पुरुष) लैंगिक समानता को लेकर किसी तरह के पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं।
2030 के लक्ष्य की राह मुश्किल
रिपोर्ट के मुताबिक, लैंगिक असमानता पर दकियानूसी सोच पिछले एक दशक में जरा-भी नहीं बदली जबकि इस दौरान न केवल महिला अधिकार समूह तेजी से बढ़े हैं बल्कि टाइम्स अप और मीटू जैसे अभियान भी महिलाओं की मुखर आवाज बने। लैंगिक असमानता उस समय और ज्यादा उभरकर सामने आई जब कोविड-19 के दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को रोजगार छोड़ना पड़ा। रिपोर्ट में कहा गया है कि असमानता के खिलाफ प्रयासों को लगे झटकों से 2030 तक लैंगिक समानता का यूएन का लक्ष्य पूरा होने की गुंजाइश नजर नहीं आती है।
रिपोर्ट के मुताबिक, पूर्वाग्रह भरी सोच महिलाओं के विकास में बाधक है और यह नेतृत्व वाली भूमिका में महिलाओं के बेहद कम प्रतिनिधित्व से साफ नजर आता है। 1995 के बाद की स्थिति पर गौर करें तो राष्ट्र प्रमुख या सरकार की मुखिया के तौर पर महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 10% रही है।
पढ़ाई का भी कोई फायदा नहीं
राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति जैसे सात मानकों पर लोगों की सोच को लेकर 2010 से 2014 व 2017 से 2022 तक के आधार पर तैयार रिपोर्ट में दुनिया की करीब 85 फीसदी आबादी वाले 80 देशों को कवर किया गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के पढ़े-लिखे होने का भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।