EWS आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। भाजपा, कांग्रेस समेत अन्य दलों ने भले ही सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आरक्षण को वैध करार दिए जाने के निर्णय का स्वागत किया हो, लेकिन तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने इसका तीखा विरोध किया है।
डीएमके सरकार ने कहा है कि वह इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका डालेंगे। इसके लिए वह अपने वकीलों से राय ले रहे हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा, इससे सदियों से चली आ रही सामाजिक न्याय की लड़ाई को धक्का लगा है।
ईडब्ल्यूएस कोटे के विरोध में थी डीएमके
तमिलनाडु की स्टालिन सरकार शुरुआत से ही ईडब्ल्यूएस कोटे के विरोध में थी। सरकार ने इस आरक्षण के तहत राज्य में नौकरी न देने का फैसला लिया था और उसने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट में ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मुद्दे पर दाखिल याचिकाओं में एक पार्टी डीएमके सरकार भी थी। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद डीएमके नेता टी. तिरेमावलन ने कहा कि पार्टी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर पुनर्विचार याचिका डालने पर विचार कर रही है।
3-2 से पारित हुआ था फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सोमवार को 3-2 के बहुमत से फैसला सुनाया था। पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ के तीन जजों ने EWS आरक्षण को संविधान के खिलाफ नहीं माना था, वहीं सीजेआई यूयू ललित व जस्टिस रवींद्र भट ने इस आरक्षण के विरोध में फैसला सुनाया था।
EWS आरक्षण में कहां फंसा था पेच?
EWS का मतलब है आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण। यह आरक्षण सिर्फ जनरल कैटेगरी यानी सामान्य वर्ग के लोगों के लिए है। इस आरक्षण से SC, ST, OBC को बाहर किया गया है। दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र की मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी आरक्षण दिया था। इसके लिए संविधान में 103वां संशोधन किया किया था। वैसे कानूनन, आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। अभी देशभर में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग को जो आरक्षण मिलता है, वो 50 फीसदी सीमा के भीतर ही है। मामला यहीं फंस गया था कई लोगों को आपत्ति थी कि सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण मिलने से यह करीब 60 फीसदी के बराबर हो जाएगा जो कि संविधान को घोर उल्लंघन है। केंद्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 40 से ज्यादा याचिकाएं दायर हुई थीं। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 27 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रखा था।इसके अलावा फरवरी 2020 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में पांच छात्रों ने भी आरक्षण के खिलाफ याचिका दायर की थी।