भारतीय अर्थव्यवस्था में तिलहनी फसलें खाद्यान्न फसलों के बाद दूसरा महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। भारत में जलवायु की विभिन्नता के कारण कई तिलहनी फसलें उगाई जाती हैं। इनमें अलसी(तिसी) एक प्रमुख फसल है, जो पौष्टिकता के साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है। विश्व पटल में बोई जाने वाली अलसी को देखा जाये तो चीन, कनाडा और कजाकिस्तान के बाद भारत का तीसरा स्थान है।
यह बातें रविवार को हिन्दुस्थान समाचार से खास बातचीत में चन्द्रशेखर आजाद कृषि प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर की अलसी अभिजनक डॉ. नलिनी तिवारी ने कही।
उन्होंने बताया कि अलसी उत्पादन में कनाडा, कजाकिस्तान, चीन एवं यूएसए के बाद भारत का पांचवां स्थान है। भारत में अलसी का कुल क्षेत्रफल 2.94 लाख हेक्टेयर तथा उत्पादन 1.54 लाख टन एवं उत्पादकता 525 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है।
उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश की बात की जाये तो यहां पर अलसी का क्षेत्रफल उत्पादन एवं उत्पादकता क्रमश: 0.32 लाख हेक्टेयर, 0.17 लाख टन एवं 531 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। उत्तर प्रदेश में अलसी की खेती बुंदेलखंड क्षेत्र जालौन, हमीरपुर, बांदा, झांसी, ललितपुर एवं कानपुर नगर, कानपुर देहात, बस्ती, प्रयागराज, वाराणसी, मीरजापुर आदि में सफलतापूर्वक की जाती है। अलसी की खेती जैविक एवं अजैविक दोनों प्रकार से की जा सकती है। इस समय अलसी की बुवाई का समय चल रहा है, किसान भाई 20 नवम्बर तक अलसी की बुवाई कर सकते हैं।
निरोग बनाती है अलसी
उन्होंने बताया कि अलसी के बारे में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि जिस घर में अलसी का सेवन होता है वह घर निरोगी होता है। अलसी के बीज में तेल 40 से 45 प्रतिशत, प्रोटीन 21 प्रतिशत, खनिज तीन प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 29 प्रतिशत, ऊर्जा 530 किलोग्राम कैलोरी, कैल्शियम 170 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम, लोहा 370 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम, इसके अलावा कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन एवं नाएसीन भी होता है।
कब्ज दूर करने में है सहायक
उन्होंने बताया कि अलसी के छिलके में मुएसिटेड होता है जिससे सर्दी, जुखाम, खांसी एवं खरास में फायदा होता है। अलसी में लिगनेन नामक एंटीऑक्सीडेंट होता है जो कि एक प्लांट एस्ट्रोजन होता है। यह कैंसर रोधी होता है तथा ट्यूमर की ग्रोथ को रोकता है। अलसी के बीज में खाद्य रेशा भी होता है जिसके कारण कब्ज एवं शरीर के रक्त में शर्करा के स्तर को नियमित करने में सहायक एवं कोलेस्ट्रॉल को कम करने में सहायक होता है। अलसी से प्राप्त प्रोटीन में सभी एमिनो एसिड पाए जाते हैं, इसके बीज में ओमेगा 3 एवं ओमेगा 6 वसा अम्ल भी होते हैं। ओमेगा-3 हमारे शरीर में संश्लेषित नहीं होता है। अतः हमें अलसी खाकर इसकी आपूर्ति करनी पड़ती है। ओमेगा 6 से बुद्धि एवं स्मरण शक्ति, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल कर हृदयघात रोकने एवं गठिया के निदान में उपयोगी है। खिलाड़ियों के मांस पेशियों के खिंचाव एवं दर्द में भी अलसी के तेल का प्रयोग किया जाता है।
20 फीसदी तेल का खाने में होता है प्रयोग
डॉ. नलिनी तिवारी ने बताया कि हमारे देश में अलसी की खेती मुख्यतया बीज से तेल प्राप्त करने के लिए की जाती है। कुल तेल उत्पादन का 80 प्रतिशत भाग औद्योगिक कार्यों के लिए यानी पेंट, चमड़ा, छपाई, स्याही आदि के रूप में प्रयोग होता है, बाकी 20 प्रतिशत तेल खाने में इस्तेमाल होता है। बीज से तेल निकालने के बाद 18 से 20 प्रतिशत प्रोटीन व तीन प्रतिशत तेल बचता है जो कि जानवरों के लिए पौष्टिक एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के भी काम आता है।
दो प्रकार की होती है अलसी की प्रजाति
डॉ नलिनी ने बताया कि अलसी की दो प्रकार की प्रजाति होती है। एक बीज उद्देश्य यानी उसका बीज तेल निकालने में काम आता है और दो उद्देश्य प्रजाति में रेशा प्राप्त किया जाता है। यह रेशा मजबूत टिकाऊ एवं चमकदार होता है, इससे मजबूत रस्सी एवं कपड़े बनाए जाते हैं। चमकदार रेशा होने के कारण इसे सूती, रेशमी कपड़ों के साथ मिलाकर वस्त्र बनाए जाते हैं। इसके साथ ही इसका उपयोग फौज में विभिन्न कार्यों के लिए किया जाता है। इसकी लकड़ी के टुकड़ों से लुगदी बनाकर अच्छी गुणवत्ता वाले कागज तैयार किए जाते हैं। विश्वविद्यालय ने अलसी की बीज वाली प्रजातियां एवं दो उद्देश्य प्रजातियां विकसित की हैं। किसान भाई इनका प्रयोग अपने खेत में करके अपनी आय को बढ़ा सकते हैं। बीज उद्देश्य प्रजातियों में इंदु, उमा, सूर्या, शेखर, अपर्णा, शीला, सुभ्रा और गरिमा आदि हैं जबकि दो उद्देश्य प्रजातियों में शिखा, रश्मि, पार्वती, रुचि, राजन एवं गौरव आदि हैं।