कुछ समय पहले भोपाल के पास भोजपुर गांव में जाने का मौका मिला, वहां एक गैरसरकारी संस्था के प्रयासों से एक रीडिंग रूम संचालित होता है, जहां शाम होते ही गांव के 25-30 बच्चे रोज मिलते है और कुछ कहानी-कविता की किताब पढते है, साथ मिलकर गीत गाते है, कहानी सुनाते है, खेल गीत गाते है, दो घंटे साथ रहकर बच्चे अपनी पसंदीदा किताब घर ले जाते है. वो आपस में खेलते है, नियम बनाते है, सहमतियां बनाते है, इन कामों में इस गांव की पढ़ी-लिखी महिला कार्यकर्ता बच्चों की मदद करती है. किताबों को पढने के साथ ही परस्पर साथ खेलने से उनका जो आत्म-विश्वास बढ़ता हुआ दिखता है वह काबिले तारीफ है. इस तरह के बहुत सारे प्रयास देश के विभिन्न इलाकों में सरकारी , गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा किए जा रहे हैं.
आज जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, हाल में पुस्तक संस्कृति के विकास के लिए देश की शीर्षस्थ संस्था राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत के स्थापना के 65 साल भी पूरे हुए. समाज में पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति को विकसित करने, देश की विभिन्न बोली भाषाओं में कम कीमत की पुस्तकों को तैयार करने और जन-जन तक पंहुचाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत की स्थापना हुई थी. जानकारी के अनुसार न्यास द्वारा अब तक 55 भाषा-बोलियों में 20 हजार से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं, इसमें लगभग 13000 पुस्तकें अभी भी उपलब्ध हैं और इसमें से भी 60 प्रतिशत पुस्तक बच्चों की हैं, जो बाल साहित्य का सचमुच में एक मानीखेज काम है.
पूरे देश के परिदृष्य में देखा जाए तो बाल साहित्य पर हमारे पास प्राथमिक डेटा के उपलब्धता की कमी है, लेकिन मोटे तौर पर मिली एक जानकारी के अनुसार यूनाईटेड किंगडम में जहां एक बच्चे के पास 6 पुस्तकें उपलब्ध होतीं है वहीं भारत में एक पुस्तक पांच बच्चों के बीच, जो कि एक बहुत बड़ा अंतर है और यह जानकारी समाज या नीतियां बनाने वालों तक उस तरह नही पंहुची है. जबकि सब मानते है कि बेहतर किताबों को पढ़ना व्यक्तित्व विकास के लिए बहुत जरूरी है.
2011 के आसपास से ही व्यवसायिक संस्थानों का देश का सबसे बड़ा एसोसिएशन फिक्की (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry) ने भी प्रकाशन को एक अलग सेक्टर के रूप में देखना शुरू किया है, भारतीय प्रकाशकों की दुनिया को समझने के लिए फिक्की में एक विंग की शुरूआत की पहल है जो कि प्रकाशन से जुडे तमाम अध्ययन, सर्वे, सेमीनार वर्कशाप को कर रहा है और प्रकाशन से जुड़े संस्थानों और पुस्तकों को विभिन्न अवार्ड्स भी दे रहा है. फिक्की के अनुसार प्रकाशन सेक्टर में भारत दुनिया के सात बड़े देशों की गिनती में आता है.
कुछ साल पहले टाटा ट्रस्ट के पराग इनिशिएटिव द्वारा कराए गए अध्ययन अनुसार भारत के प्रकाशन के बाज़ार में मात्र 5 प्रतिशत ही बच्चों के साहित्य का हिस्सा है, जो कि 20 से 25 प्रतिशत की वार्षिक दर से वृद्धी कर रहा है. पराग इनिशिएटिव के माध्यम से वेल्यूनोट्स संस्थान द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि पिछले दो दशकों में संगठित क्षेत्रों से बाल साहित्य में करीब 100 प्रकाशक उभरे है इनमें 15 से 20 प्रकाशक ही उत्कृष्ट और मौलिक सामग्री को प्रकाशित कर उपलब्ध करवाते है. हालांकि देशभर में बच्चों के लिए पुस्तकें छापने के लिए लगभग 2500 प्रकाशक है. 2013-14 में कराए गए इसी अध्ययन के अनुसार देश में प्रकाशन का मार्केट लगभग 11,500 करोड़ रुपए का है, इसमें बाल साहित्य का मार्केट मुश्किल से 600 करोड रुपए का है. सरकार बाल साहित्य की देश में सबसे बड़ी खरीददार रही है, 30 प्रतिशत बाल साहित्य शहरी इलाकों में जाता है, 70 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में वितरण के लिए होता है यह चिन्ताजनक बात है कि वहां केवल 20 प्रतिशत ही वहां पहुंच पाता है.
कहते है बच्चे देश समाज का भविष्य होते है और पुस्तकें उनका आईना. समझ विकसित करने में पाठ्य पुस्तकें नाकाफी है, कक्षा के बाहर भी एक दुनिया है और इस दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पुस्तकें है. लेकिन बच्चों के लिए अच्छी पुस्तकों की उपलब्धता हमारे देश में बहुत कम है. जैसे फिक्की के अनुसार प्रकाशन सेक्टर दुनियां के सात देशों की गिनती में आता है, लेकिन बाल साहित्य को देखें तो उसका विकास उस गिनती से मेल नही खाता है.
एक समय था जब बच्चों के लिए पुस्तकों छापने वाली गिनी चुनी संस्था जैसे नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट और कुछ प्रकाशन संस्थान ही हुआ करते थे. पिछले दो दशकों से कईं व्यवसायिक, सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं बाल साहित्य विकसित कर और उसको फैलाने का काम अपनी तमाम सीमाओं के साथ समस्याओं से जूझते हुए करने में सक्रिय है, इनमें प्रथम, कथा, एकलव्य, रूम टू रीड, तारा, स्कालास्टिक इंडिया, एन.सी.ई.आर.टी., नवनीत प्रकाशन, ए एंड ए बुक्स, इकतारा, भारत ज्ञान विज्ञान समिति और अन्य संस्थाओं का काम और पंहुच उल्लेखनीय है. राष्ट्रीय पुस्तक न्यास तो है ही, सर्व शिक्षा अभियान जैसे अभियानों ने भी बाल साहित्य को विकसित करने में उर्वर जमीन दी है.
कोविड-19 महामारी के दौरान भी विभिन्न प्रकाशक संस्थाओं ने अपनी पुस्तकों को डिजीटल फार्मेट में बदला और शिक्षा विभागों के साथ तालमेल करते हुए लाखों शिक्षकों और करोड़ों बच्चों तक नि:शुल्क पंहुचाया गया और कुछ हद तक बच्चों को कोविड-19 महामारी के दौरान हुई सीखने की कमी को पाटने की कोशिश की, यह विचारणीय है कि यदि बच्चों के लिए अच्छा साहित्य विकसित और उपलब्ध नहीं होता तो कितनी अधिक मुश्किलें होतीं, हालांकि डिजीटल माध्यमों की भी सीमाएं है और डिजीटल उपकरणों से होने वाली दिक्कतें अभी बहुत उभर कर नही आई हैं.
भारत द्वारा अपनाएं गए सतत विकास एजेंडा 2030 के “सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने “ के लक्ष्य को पूरा करने में निश्चित रूप से बाल साहित्य का एक महत्वपूर्ण योगदान है और हमेशा रहेगा. इसीलिए शिक्षा के उद्दैश्यों को पूरा करने के लिए की गई मुदलियार कमीशन (1952-53) से लेकर नई शिक्षा नीति-2020 जैसी हर अनुशंसाओं और नीतियों में बाल साहित्य और पढ़ने पढ़ाने की संस्कृति के विकास को विशेष महत्व दिया गया है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुसार सभी भारतीय व स्थानीय भाषाओं में दिलचस्प और प्रेरणादायक बाल साहित्य और सभी स्तर के विद्यार्थियों के लिए स्कूल और स्थानीय पुस्तकालयों में बड़ी मात्रा में पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएंगी. देश भर में पढ़ने की संस्कृति के निर्माण के लिए सार्वजनिक और स्कूल पुस्तकालयों का विस्तार किया जाएगा. एक राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन नीति भी बनाई जाएगी और सभी स्थानों, भाषाओं, स्तरों और शैलियों में पुस्तकों उपलब्धता, पंहुच, गुणवत्ता और पाठकों को सुनिश्चित करने के लिए व्यापक पहल की जाएगी.
नीति में यह भी कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें ये सुनिश्चित करेंगी कि पूरे देश में सभी कि – जिसमें सामाजिक आर्थिक रूप से वंचित लोगों के साथ ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले भी शामिल हैं-पुस्तकों की पंहुच हो और पुस्तकों का मूल्य सभी के खरीद सकने की सामर्थ्य के अंदर हो. सार्वजनिक और निजी दोनों प्रकार की एंजेसियां पुस्तकों की गुणवत्ता और आकर्षक बनाने की रणनीति पर काम करेंगी.
फिक्की के प्रकाशन सेक्टर के प्रोफाईल के अनुसार मानव मूल्यों के विकास और उनके प्रोत्साहन के लिए पुस्तकें हमेशा से ही एक जरूरी माध्यम रहा है, पुस्तकें राष्ट्र के उत्थान के लिए उत्प्रेरक का काम करती रही है, वे नए विचार को सहेजने, उनको फैलाने, शिक्षा और मूल्यों को देने और सम्पूर्ण व्यक्तिगत विकास में सहायक होती है.
अभी तक पुस्तकों की पंहुच बच्चों तक पंहुचाने और संस्कृति को विकसित करने में विभिन्न स्तरों पर सरकारें, गैर सरकारी संस्थानों अपना योगदान दे रहीं है, लेकिन सचाई यह भी है कि विद्यालयों में पहुंचीं पुस्तकें वहां की अलमारियों में कैद है, उनको बाहर निकालना और बच्चों की पहुंच में लाना बहुत जरूरी कदम होगा. गुणवत्तापूर्ण पुस्तकों को बहुत अधिक संख्या में विकसित करना होगा. आज की स्थिति देखें तो सबसे ज्यादा पुस्तकें अंग्रेजी में उपलब्ध है और उसके बाद हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों में पुस्तकों का प्रकाशन और उनकी पंहुच सुनिश्चित करना भी एक बड़ी चुनौती होगा. बाल साहित्य प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी मदद की बहुत जरूरत होगी, इस क्षेत्र में कारपोरेट संस्थान भी विभिन्न प्रकार से सहयोग करके अपना योगदान दे सकते हैं.
नई शिक्षा नीति-2020 के अनुसार ही यदि सरकार, संस्थाएं, स्कूल, समाज यदि काम कर सकें तो मुमकिन है कि हमारी पीढ़ी भारत में भी पुस्तकों की पंहुच 5 बच्चों के लिए एक पुस्तक से अधिक बढ़ सकेगी.