कोर्ट ने कहा,कोर्ट यदि पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ पति के साथ रहने को बाध्य करती है तो यह महिला के गरिमामय जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सांविधानिक अधिकार का उल्लघंन होगा। कोर्ट ने कुरान की सूरा चार आयत तीन के हवाले से कहा, यदि मुस्लिम अपनी पत्नी तथा बच्चों की सही देखभाल करने में सक्षम नहीं है तो उसे दूसरी शादी करने की इजाजत नहीं होगी।
कोर्ट ने यह भी कहा कि जिस समाज में महिला का सम्मान नहीं, उसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता। महिलाओं का सम्मान करने वाले देश को ही सभ्य देश कहा जा सकता है। मुसलमानों को स्वयं ही एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी करने से बचना चाहिए। एक पत्नी के साथ न्याय न कर पाने वाले मुस्लिम को दूसरी शादी करने की स्वयं कुरान ही इजाजत नहीं देता।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों का हवाला देते हुए कहा, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। अनुच्छेद 14 सभी को समानता का अधिकार देता है और अनुच्छेद 15(2) लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने पर रोक लगाता है। कोई भी व्यक्तिगत कानून या चलन सांविधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता।
कोर्ट ने कहा, पर्सनल ला के नाम पर नागरिकों को सांविधानिक मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। जीवन के अधिकार में गरिमामय जीवन का अधिकार शामिल हैं। कोई भी मुस्लिम पत्नी बच्चों की देखभाल नहीं कर सकती तो उसे पहली की मर्जी के खिलाफ दूसरी से शादी करने का अधिकार नहीं है। यह पहली पत्नी के साथ क्रूरता है। कोर्ट भी पहली पत्नी को पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।
मामले में याची अजीजुर्रहमान व हमीदुन्निशा की शादी 12 मई 1999 में हुई थी। विपक्षी पत्नी अपने पिता की एक मात्र जीवित संतान है। उसके पिता ने अपनी अचल संपत्ति अपनी बेटी को दान कर दी। वह अपने तीन बच्चों के साथ 93 वर्षीय अपने पिता की देखभाल करती है। बिना उसे बताए पति ने दूसरी शादी कर ली और उससे भी बच्चे हैं। पति ने परिवार अदालत में पत्नी को साथ रहने के लिए केस दायर किया। परिवार अदालत ने पक्ष में आदेश नहीं दिया तो हाईकोर्ट में अपील दाखिल की गई जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है।