पांच वर्ष में 11 जिलों में धान की जगह 90 हजार हेक्टेयर में किसानों ने ली दलहन फसलें
पानी का सर्वाधिक 70-80 फीसद उपयोग खेती में होता है। लिहाजा इसी क्षेत्र में पानी बचाने की सबसे अधिक गुंजाइश भी है। खासकर अधिक पानी खपत वाली धान जैसी फसलों की जगह कम पानी और अधिक लाभ वाली फसलें हैं। फसल विविधीकरण इसका सबसे प्रभावी तरीका है। अधिक पानी खपत वाली फसलों की जगह कम पानी में होने वाली फसलों की प्रतिस्थापना (रीप्लेसमेंट) के जरिए यह किया जा सकता है। उप्र के किसानों ने कुछ हद तक करके दिखाया भी है।
सरकार फसल विविधीकरण योजना के तहत वर्ष 2014-2015 से प्रमुख धान उत्पादक 11 जिलों को केंद्र में रखकर धान की जगह अपेक्षाकृत कम पानी लेने वाली लाभकारी फसलों के लिए जागरूकता कार्यक्रम चला रही है। पिछले पांच साल में इसके नतीजे भी अच्छे रहे हैं। संबंधित जिलों के 90 हजार हेक्टेयर रकबे में किसानों ने धान की जगह उरद, मूंग, तिल, बाजरा, मूंगफली, सोयाबीन और सब्जियों की खेती से प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया।
इनमें से अधिकांश फसलें दलहन संवर्ग की हैं। अपने नाइट्रोजन फिक्सेशन गुण के कारण ये भूमि के लिए संजीवनी हैं। साथ ही आम भारतीय के लिए प्रोटीन का स्रोत भी। इस तरह ये जन एवं जमीन दोनों की सेहत के लिए भी मुफीद है। उरद और मूंग जैसी फसलें तो कम समय में हो जाती हैं। इस तरह इनके बाद किसान बाजार की मांग के अनुसार तीसरी फसल भी ले सकते हैं। इसी तरह अपने पौष्टिकता के लिए चमत्कारिक माना जाने वाला बाजरा एक मात्र ऐसी फसल है जिसका परागण 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी हो जाता है। धान की तुलना में पानी तो इन सभी फसलों में कम लगता है।
घट रहा बारिश का औसत
हाल के वर्षों में खासकर पिछले तीन दशकों के दौरान मौसम अप्रत्याशित हुआ है। ओसत बारिश घटने के साथ बारिश की समयावधि भी घटी है। कम समय में अधिक बारिश होना और इसके बाद सूखे का लंबा दौर आम है। एक अध्ययन के अनुसार उप्र के बुंदेलखंड क्षेत्र में पिछले 80 वर्षों के दौरान औसत बारिश में करीब 320 मिलिमीटर की कमीं आई है।
कम बारिश की वजह से भारत सबसे अधिक संकट में
पानी की कमी के कारण दुनियां के जिन आठ देशों में आने वाले वर्षों में कृषि उत्पादन में गिरावट आनी है, उसमें भारत सर्वोपरि है। भारत में यह कमीं करीब 29 फीसद की होगी। मैक्सिको में 26, आस्ट्रेलिया में 16, अमेरिका में 08, अर्जेनटीना में 02, दक्षिण पूर्व के देशों में 18 और रूस में 06 फीसद कृषि उत्पादन घटने का अनुमान है। अगर भारत के संदर्भ में देखें तो कई फसलों, फलों और सब्जियों के उत्पादन में अग्रणी होने की वजह से उत्तर प्रदेश पर इसका सबसे अधिक असर पड़ सकता है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
कृषि विशेषज्ञ डॉक्टर आनंद त्रिपाठी के अनुसार हरित क्रांति के पहले फसल चक्र हमारी परंपरा थी। इसके तीन मूलभूत सिद्धांत हैं। अधिक पानी के बाद कम पानी चाहने वाली फसलें। झकड़ादार जड़ों वाली फसलों (गेंहू एवं धान) के बाद मुसलादार जड़ों वाली दलहन की फसलें। अधिक पोषक तत्त्व चाहने वाली फसलों के बाद काम पोषक तत्व चाहने वाली फसलें। हरित चक्र पर गेंहू-धान पर सारा फोकस होने के कारण फसल चक्र प्रभावित हुआ है। इसका जमीन पर जो दुष्प्रभाव हुआ है, उसे रोकने के लिए परंपरा की ओर लौटना होगा। साथ ही खेत का पानी खेत में रहे, इसके लिए साल में एक बार गहरी जोताई और मेड़बंदी भी अनिवार्य रूप से करनी होगी। इसी क्रम में पर्यावरण विद प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता के मुताबिक फसल जितना कम पानी चाहेगी, उसमें उतना ही अधिक पोषक तत्व होगा। इन फसलों की खूबी के प्रति अभियान चलाकर लोगों को जागरूक करना होगा। साथ ही इनके लिए बाजार भी विकसित करना होगा।
आशा खबर / शिखा यादव