“अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा.” भारतीय जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने 6 अप्रैल 1980 में यानी 42 सााल पहले, पार्टी की स्थापना के समय ये बात कही थी.
शायद उन्होंने यह बात पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए कही होगी लेकिन उस समय पार्टी कार्यकर्ताओं या फिर विपक्षी दलों में शायद ही किसी ने सोचा होगा कि आने वाले दिनों में वाजपेयी की बातें सही साबित होगीं.
आज 42 साल बाद पार्टी केंद्र के अलावा 20 से अधिक राज्यों में सत्ता में है और पार्टी के नेता कहते हैं कि अभी इसका विस्तार होना बाक़ी है. पिछले आठ साल में नरेंद्र मोदी- अमित शाह की जोड़ी ने पार्टी को शिखर पर पहुँचा दिया है.
पार्टी के लिए अब ‘चुनाव एक युद्ध है’
आज बीजेपी भारत की सबसे अमीर, सबसे बड़ी और सबसे प्रभावशाली राजनीतिक पार्टी है. आज ख़ुद पार्टी गर्व से दावा करती है कि सदस्यता के हिसाब से यह विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है.
चुनाव एक युद्ध है, ये केवल एक चुनावी जुमला नहीं है. इस युद्ध के दो सबसे बड़े योद्धा नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस पर अमल भी करते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी केवल हिंदुत्व के भरोसे न रहकर, उम्मीदवारों का चयन करते समय जाति, उप-जाति, सामाजिक संरचना और निर्वाचन क्षेत्रों की दूसरी बारीकियों पर गहराई से गौर करके रणनीति तैयार करती है.
रजनीकान्त कहते हैं कि इन दोनों नेताओं ने ये साबित कर दिया कि राजनीति एक फुल टाइम जॉब है. वो कहते हैं, “अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने ये बता दिया कि अगर आप चुनाव से छह महीने पहले अपने एसी कमरों से निकलेंगे, लोगों के पास जाएंगे तो आप चुनाव नहीं जीत पाएँगे. अगर आप चुनाव जीतना चाहते हैं तो आपको लगातार काम करते रहना पड़ेगा.”
पार्टी की चमक में मोदी फ़ैक्टर
पार्टी को इस स्थिति तक पहुँचने में 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की अहम भूमिका रही है. अगर मोदी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नहीं बनाए जाते तो क्या होता?
रजनीकान्त कहते हैं, “2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. ये एक वाटरशेड मोमेंट था. अगर उस समय मोदी को नहीं बनाते तो क्या होता मुझे नहीं मालूम.”
1984 के लोकसभा चुनाव में केवल दो सीटें हासिल करने से लेकर 2019 के चुनाव में 303 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने अपने इस शानदार सफ़र में कई उतार-चढ़ाव भी देखे, बड़े झटके भी खाए और मायूसी भी महसूस की. 1984 के चुनावों में ज़बरदस्त शिकस्त के बाद पार्टी और उसके वैचारिक अभिभावक संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के भीतर गंभीर आत्मनिरीक्षण किया गया.
चुनावी विफलता को इस बात के प्रमाण के रूप में देखा गया कि उस समय के पार्टी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी की उदारवादी नीति काम नहीं करेगी. वाजपेयी की जगह लाल कृष्ण आडवाणी को अध्यक्ष बनाया गया. आडवाणी ने पार्टी की मूल विचारधारा के रूप में जनसंघ के कट्टर हिंदुत्व को तुरंत पुनर्जीवित किया.
आडवाणी ने “छद्म धर्मनिरपेक्षता” और “मुस्लिम तुष्टीकरण” की बातें की जिससे हिंदुओं के बीच पार्टी का समर्थन बढ़ा.
रजनी कान्त ने कहा की “1980 में पार्टी की स्थापना के समय इसका टैगलाइन था “गांधीवादी समाजवाद”. पार्टी पर जयप्रकाश नारायण का असर था. उनके अनुसार 1984 की करारी चुनावी हार ने पार्टी को जनसंघ की हिंदुत्व की विचारधारा की तरफ़ धकेल दिया. इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए इस चुनाव के बारे में आडवाणी ने कहा था, “ये लोकसभा का चुनाव नहीं था, ये शोकसभा का चुनाव था.”
अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के काफ़ी क़रीब रह चुके नेता और लेखक सुधींद्र कुलकर्णी वाजपेयी के स्पीच राइटर भी रहे हैं. उन्होंने अपनी किताब में लिखा की बीजेपी शुरू के दिनों में हाशिये पर थी. वो कहते हैं, “बीजेपी का जन्म 1980 में हुआ. पहले 15 साल ये हाशिये पर थी लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस के गिरावट और दूसरा विकल्प न रहने के कारण एक राष्ट्रीय पार्टी होने की वजह से बीजेपी को एक गति मिलती गई और गठबंधन सरकार बनाने में उन्हें सफलता मिली.”
गठबंधन सरकार बनाने से पहले आडवाणी की बढ़ती लोकप्रियता ने पार्टी में एक नयी जान फूंकी. आडवाणी अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए एक देशव्यापी अभियान का चेहरा बन गए. कट्टर हिंदुत्व की राजनीति ने 1989 के आम चुनावों में भरपूर चुनावी लाभ दिया जब बीजेपी ने 85 लोकसभा सीटें जीतीं. इसके बाद 1991 के आम चुनावों में, इसने अपनी ताकत बढ़ाकर 120 कर दी. 1989 में इसका वोट शेयर 11.4 प्रतिशत से बढ़कर 1991 में 20.1 प्रतिशत हो गया.
1996 के आम चुनावों में, लोकसभा में भाजपा की सीटें 161 हो गई और इसने सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सरकार बनाने का दावा पेश किया, जिसे स्वीकार कर लिया गया. इस प्रकार, वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनी, लेकिन यह केवल 13 दिनों तक चली क्योंकि यह अन्य गैर-कांग्रेसी, गैर-वामपंथी राजनीतिक दलों के बहुमत को हासिल करने में नाकाम रही.
वाजपेयी ने संसद में विश्वास मत का सामना करने के बजाय इस्तीफ़ा दे दिया. 1998 में हुए आम चुनावों में, बीजेपी ने लोकसभा में 182 सीटें प्राप्त कीं और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) नामक एक गठबंधन सरकार बनाई, जो 19 मार्च 1998 से 17 अप्रैल 1999 तक 13 महीने तक चली, यह वही अविश्वास प्रस्ताव था जिसमे एक वोट से अटल बिहारी बाजपाई की सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाई और हार गई.
सितंबर-अक्टूबर 1999 में, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने आम चुनावों में 270 सीटें जीतीं, जिसमें भाजपा को 182 सीटें मिलीं. वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार 2004 में अगले आम चुनावों तक पूर्ण कार्यकाल तक चली.
इसके बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने बीजेपी को अगले 10 सालों तक सत्ता से बाहर रखा. फिर 2014 में मोदी के नेतृत्व में सत्ता में इसकी शानदार वापसी हुई और 282 सीटों के साथ पहली बार पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल की. 2019 में भाजपा के सीटों की संख्या बढ़कर 303 हो गई.
‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का या ‘मुसलमानों का विरोध’
बीजेपी के आलोचकों का कहना है कि मुसलमानों के प्रति वैमनस्य को राजनीति के केंद्र में लाना पार्टी की पॉपुलर अपील में बढ़ोतरी का एक अहम कारण रहा है.
बीजेपी स्पष्ट रूप से कहती है कि वह मुसलमानों के तुष्टीकरण की राजनीति का विरोध करती है, लेकिन पार्टी का विरोध करने वाले 2002 के गुजरात दंगों से लेकर आज तक के कई ऐसे वाक़यों का ज़िक्र करके ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि पार्टी की नीति तुष्टीकरण विरोधी नहीं, बल्कि ‘मुसलमान विरोधी’ है.
‘श्मशान-कब्रिस्तान’ से लेकर ’80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत’ और ‘अब्बा जान’ जैसे नारे हों या सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाले ढेर सारे छोटे-बड़े मुद्दे, इनकी वजह से बीजेपी पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक पूंजी की तरह इस्तेमाल करने का आरोप लगता रहा है.
जब भी पार्टी के दूसरे सबसे कद्दावर नेता अमित शाह से पूछा जाता है कि उत्तर प्रदेश में देश की सबसे बड़ी पार्टी ने इतनी बड़ी मुसलमान आबादी के बावजूद राज्य में किसी मुसलमान को चुनाव लड़ने के लिए टिकट क्यों नहीं दिया, तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, “चुनाव में उम्मीदवार के जीतने की संभावना को देखना ज़रूरी होता है.”
अयोध्या में मंदिर निर्माण, तीन तलाक पर रोक, हज सब्सिडी का खात्मा और कश्मीर में 370 की समाप्ति से लेकर मथुरा-काशी के नारे, ये सब कई ऐसे मामले हैं जिनका सीधा असर मुसलमानों पर पड़ता है, और इस असर को नकारात्मक मानने वाले मुसलमान और ग़ैर-मुसलमान दोनों हैं, लेकिन इन फ़ैसलों और नीतियों को देश का एक बड़ा तबका ‘मु्स्लिम तुष्टीकरण के ख़िलाफ़ उठाए गए क़दम’ के तौर पर देखता है और पार्टी को समर्थन देता है.
संगठन की मज़बूती पर ज़ोर
बीजेपी ने पिछले दसेक वर्षों में पार्टी संगठन को निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक लगातार मज़बूत किया है, सत्ता में आने के बाद से देश के हर ज़िले में पार्टी के शानदार दफ्तर बने हैं और पार्टी से जुड़ने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ती रही है.
“इसका अधिकतम क्रेडिट ऑर्गेनाइजेशन को जाना चाहिए. इसकी वर्किंग टीम को जाना चाहिए, इसके वर्किंग स्टाइल को जाना चाहिए. अभी के 8 सालों का श्रेय नरेंद्र मोदी और अमित शाह को जाना चाहिए. लेकिन उसमे भी बड़ा फैक्टर संगठन है. पार्टी के वर्कर्स का कमिटमेंट है. पार्टी के पुराने लोग पार्टी छोड़ कर नहीं जाते, खास तौर से सरकार बनाने नहीं जाते. जो लोग छोड़ कर गए हैं उनमें से 80 प्रतिशत या 90 प्रतिशत वो लोग हैं जो अपनी पार्टी छोड़कर बीजेपी में आए थे.”
रजनी कान्त का कहना है की कमल के खिलने के कई कारण हैं लेकिन वो अयोध्या आंदोलन को एक ख़ास कारण मानते हैं. वो कहते हैं, “अयोध्या आंदोलन में बीजेपी को छलांग मिली. विचित्र रूप से उससे बीजेपी का जनाधार बढ़ा, बीजेपी की स्वीकृति ज्यादा लोगों तक पहुंची.” वो आगे कहते हैं, “1996 से 2006 तक उत्तर प्रदेश में और दूसरी जगहों पर भी पार्टी की हालत ठीक नहीं थी. लग रहा था बीजेपी पीछे ही जा रही है. और लीडरशिप भी नहीं दिख रही थी. एकदम से वैक्यूम हुआ. वाजपेयी शारीरिक रूप से सक्षम नहीं रह गए थे. और आडवाणी 2005 में जिन्ना विवाद के बाद डिस्क्रेडिट हो चुके थे. वहां फिर आरएसएस ने हस्तक्षेप किया और नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया गया. वहां से एक बदलाव शुरू हुआ, संगठन की बात होने लगी. इसके बाद 2013 में मोदी का उदय हुआ.” बीजेपी के विकास में कांग्रेस पार्टी का भी हाथ है. वो कहते हैं, “भारतीय जनता पार्टी की सफलता के पीछे कांग्रेस का बहुत कमज़ोर होना एक बड़ी वजह है. और दूसरा कारण ये है कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई और विकल्प नहीं है.”
“केवल यह कहना कि विपक्ष कमज़ोर हो गया था इसलिए बीजेपी का विकास हुआ ये सही नहीं होगा. विपक्ष कमज़ोर हुआ ये एक मुद्दा है, हो सकता है लेकिन बीजेपी ने अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए क्या किया,आप देखिए. लोग ये नहीं देखते हैं कि 1984 के बाद बीजेपी ने किया क्या. बीजेपी ने अपने सबसे लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी को अध्यक्ष पद से हटा दिया. पूरे संगठन में बदलाव किया केंद्र से लेकर राज्यों तक. 2013 में उत्तर प्रदेश में पार्टी का पुनर्गठन हुआ, विस्तार हुआ. यहाँ से जो बदलाव शुरू हुआ और फिर प्रधानमंत्री मोदी की अपनी विश्वसनीयता. उनके पास पॉलिटिकल कैपिटल बहुत ज़्यादा है.”
ये सही है कि बीजेपी का उदय और कांग्रेस का पतन साथ साथ हुआ. बीजेपी ने बिखरते कांग्रेस के कई नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल किया. बीजेपी में आज कई बड़े नेता एक समय में कांग्रेस में थे. “जिस पार्टी ने 2014 में कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया आज वो कांग्रेस युक्त पार्टी होने के आरोपों से अपने आप को असहज महसूस करती है
पार्टी की विचारधारा में इससे कोई फ़र्क़ आया है ?
“इसको दोनों तरह से देखना चाहिए. जो लोग आये हैं वो भी बदले हैं. इस पार्टी का एक अपना अनुशासन भी है. इतना तय है कि जो नए लोग बीजेपी में शामिल हो रहे हैं वो बीजेपी की विचारधारा के कारण नहीं हो रहे हैं. वो केवल सत्ता में आने के लिए शामिल हो रहे हैं.”
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि बीजेपी के विकास में गठबंधन बनाने की रणनीति का भी हाथ है. बीजेपी ने सत्ता में आने के लिए जूनियर पार्टनर बन कर भी गठबंधन किया है, जैसा कि जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी सरकार में बीजेपी एक जूनियर पार्टनर थी. जब बीजेपी ने 2014 के चुनावों में ख़ुद पूर्ण बहुमत हासिल किया तो उसे एनडीए गठबंधन के पार्टनर्स की सहायता की ज़रुरत नहीं थी लेकिन बीजेपी ने इनका साथ नहीं छोड़ा.
इसके अलावा बीजेपी के विस्तार में पेशेवर लोगों को शामिल करना और समाज के हर वर्ग को जोड़ना शामिल है, जैसा कि मोदी ने मूल मन्त्र दिया की सबका साथ सबका विकास , “बीजेपी के पास सबसे अधिक मोर्चे हैं. समाज में जितने वर्ग हैं सबका संगठन बना दिया है बीजेपी ने — पूर्व सैनिकों का संगठन है, वकीलों का है, व्यापारियों का है, शिक्षकों का संगठन है, खिलाडियों का संगठन है, सब तरह के वर्ग को संगठन में शामिल किया गया है. जाति की तरफ देख लें, अनुसूचित जाति मोर्चा, अनुसूचित जनजाति मोर्चा, दलित मोर्चा, अल्पसंख्यक मोर्चा, महिला मोर्चा, युवा मोर्चा सब में बीजेपी है.”
शुरूआत से अब तक बदलाव
अटल-अडवानी युग और मोदी-साह युग दोनों दौर के बीजेपी में बहुत फ़र्क़ है. “बड़ा फ़र्क़ ये है कि पहले वो एक सामाजिक-राजनीतिक पार्टी की तरह से काम कर रही थी. जब पार्टी बनी थी तो आडवाणी जी ने कहा था: चाल, चरित्र और चेहरा. अब भी ऐसा ही है लेकिन उसका मोटो या सिद्धांत बदल गया है. अब उसका मोटो है पावर और चुनाव में किसी तरह से जीत. अब जीतने की क्षमता सब से बड़ा फैक्टर है जिसके लिए कुछ भी किया जा सकता है.”
बीजेपी की मुख्य विचारधारा में बदलाव नहीं आया है. “कोई पार्टी चुनाव हारने के लिए नहीं मैदान में आती है. समय के हिसाब से रणनीति बनती है. कल्पना कीजिये कि वाजपेयी को 300 सीटें मिली होती तो क्या उसी तरह से सरकार चलती जिस तरह से चली थी ? गठबंधन पॉलिटिक्स उनकी मजबूरी थी. मोदी के सामने गठबंधन की कोई मजबूरी नहीं है.”
जहा एक तरफ वाजपेयी जी ने बीजेपी को एक मुख्यधारा वाली पार्टी और सर्व शासक, सब को साथ लेकर चलने वाली पार्टी बनाना चाहा और ईमानदारी से प्रयास भी किया. वो पार्टी को केवल हिन्दुओं की पार्टी बनाना नहीं चाहते थे इसीलिए विरोधी दलों में उनकी इज़्ज़त थी.”
पार्टी और भी ऊपर जाएगी, नया नेतृत्व आएगा?
सुधींद्र कुलकर्णी ने भाजपा छोड़ने के बाद अपने बायोग्राफी में लिखा की एक बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में उतार-चढ़ाव होता रहता है. कोई भी पार्टी हमेशा शिखर पर नहीं रह सकती. या कोई भी अच्छी पार्टी हमेशा नीचे नहीं रही है, एक लंबे समय तक कांग्रेस भारत का सब से बड़ा दल रहा. लेकिन कुछ अपनी ग़लतियों के कारण और कुछ राजनीतिक परिस्थिति बदलने के कारण इसकी गिरावट शुरू हुई. और एक समय ऐसा आया था जब इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरी थी. लेकिन जनता पार्टी बहुत जल्दी टूट गयी और उसके कारण जो एक वैक्यूम पैदा हुआ उसको बीजेपी भरने में कामयाब हुई, हालांकि ये कामयाबी तुरंत नहीं मिली. इसके लिए उनको काफी कष्ट झेलना पड़ा, काम करना पड़ा.
अभी दक्षिण भारत के राज्यों में और ओडिशा जैसे राज्यों में बीजेपी सत्ता से काफ़ी दूर है. “दक्षिण भारत में बीजेपी केवल पॉन्डिचेरी और कर्नाटक में सत्ता में है. तेलंगाना में पार्टी मज़बूत हुई है और वहां कांग्रेस कमज़ोर हुई है. इसलिए ये दूसरे नंबर की पार्टी बन सकती है.”
शायद इन्ही संभावनाओं को ध्यान में रख कर ही भाजपा ने अपनी रास्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तेलगाना में की और कही न कही अपने इस उदेश्य में बीजेपी सफल भी हुयी यहाँ पर आयोजित रैली में लाखो की संख्या में जनता का आना यह बताता है की तेलगाना की जनता को अब बीजेपी के रूप में केसीआर का विकल्प मिलने जा रहा है निश्चित रूप से इस बार तेलंगाना में कमल खिलना तय माना जा रहा है
फ़िलहाल इसमें कोई संदेह नहीं है की मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में ही पार्टी आगे बढ़ी और अपने 50 साल के सत्ता में रहने की ओर बढ़ रही है
लेखक :
रजनी कान्त जी
भातीय जनता पार्टी के प्रान्त स्तरीय पदाधिकारी है