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आपदा में अवसर तलाशती अपराध कहानी, क्राइम पेट्रोल शो का सस्ता वर्जन बनी ‘माइनस 31’

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प्रतीक मोइत्रो के डायरेक्शन में बनी फिल्म ‘माइनस 31’ रिलीज हो गई है। यह मूवी आपदा में अवसर की तलाश करती अपराध की कहानी है।

जब देश में कोरोना अपने चरम पर था,  तो कुछ लोग इसे आपदा में अवसर बनाने में लगे रहे।  कोरोना महामारी के दौरान अचानक  रेमडेसिविर इंजेक्शन की डिमांड बढ़ गई। जब किसी चीज की डिमांड ज्यादा बढ़ जाती है और सप्लाई कम होने लगती है तो इसकी  कालाबाजारी बढ़ जाती है। कोरोना महामारी के दौरान जब रेमडेसिविर इंजेक्शन डिमांड बढ़ी और इसकी सप्लाई कम हुई तो इसकी कालाबाजारी भी बढ़ गई। आलम यह था कि उन दिनों नागपुर जैसे शहर में रेमडेसिविर इंजेक्शन 40 हजार रुपए में बिकने लगे।  रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी से एक मर्डर मिस्ट्री जोड़कर निर्देशक प्रतीक मोइत्रो ने एक कहानी गढ़ दी,  ‘माइनस 31-द नागपुर फाइल्स’ की।

Minus 31 Review Crime story finding opportunity in disaster film became a cheaper version of Crime Patrol show
फिल्म ‘माइनस 31-द नागपुर फाइल्स’ की शुरुआत एक मर्डर मिस्ट्री से होती है। शहर के एक नामी बिजनेसमैन की हत्या करके जहां पर कोरोना से मर रहे लोगों को जल प्रवाह किया जाता है, वहीं पर उसकी लाश को फेंक कर एक शख्स चला जाता है। उस शख्स की पहचान इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि वह मास्क पहने हुए था। पुलिस की तहकीकात शुरू होती है और पुलिस हत्या के कारणों के तह में जाने की कोशिश करती है। कहानी की शुरुआत ठीक क्राइम पेट्रोल के किसी एपिसोड की तरह होती है। लेकिन क्राइम पेट्रोल शो की तरह रोमांच पैदा नहीं कर पाती है।
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क्राइम शो ‘क्राइम पेट्रोल’ की यह खासियत होती हैं कि अगर आपने पांच मिनट शो देख लिए तो जबतक कातिल पकड़ा नहीं जाता तब तक टीवी से नजर हटती नहीं है। लेकिन यहां मामला उसके एकदम उल्टा है। फिल्म ‘माइनस 31-द नागपुर फाइल्स’ में ऐसा कोई टर्न और ट्विस्ट नहीं, जो दर्शकों को सीट से बांधे रखे। फिल्म में सब इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रही रुचा इनामदार को लो ब्लड शुगर है,इसलिए घर पर उसका बर्ताव अपने पिता के साथ चिड़चिड़ा रहता है। उसके पिता रघुवीर यादव को हाई ब्लड शुगर है, इसलिए उनका भी बर्ताव चिड़चिड़ापन रहता है। इसलिए बाप बेटी में अक्सर कहा सुनी होगी रहती है। लेकिन ड्यूटी के दौरान सब इंस्पेक्टर बिल्कुल सामान्य रहती है, वहां उसके लो ब्लड शुगर का असर नहीं दिखता है। फॉरेंसिक रिपोर्ट तैयार करने वाले अधिकारी को हमेशा नशे में धुत ही दिखाया गया है,चाहे वह ड्यूटी पर हो फिर घर पर हो। फॉरेंसिक लैब तो बिलकुल भी लैब जैसा नहीं लगता है।
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फिल्म में आर्ट डायरेक्टर की भारी चूक दिखती है, या फिर ऐसा भी हो सकता है कि प्रोडक्शन टीम की तरफ से उसे जरूरी सामान मुहैया न कराया गया हो। फिल्म के लेखन में जो गंभीरता नजर आनी चाहिए वह पूरी फिल्म में कहीं भी नजर नहीं आई।  शहर के इतने बड़े बिजनेस की हत्या हो गई, उसके परिवार का कहीं अता पता नहीं, शायद बाद में लेखक को इस बात का ख्याल आया होगा कि हत्या हुए दो दिन हो गया, अब तो परिवार की एंट्री होती होनी चाहिए। सीधा पत्नी की एंट्री अपने भाई के साथ फॉरेंसिक लैब में होती है। वहां पहले से मौजूद सब इंस्पेक्टर मृतक की बॉडी देने से इंकार देती कि जब तक पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं आएगी,मृतक की बॉडी नहीं मिलेगी। यहां पर फॉरेंसिक जांच और पोस्टमार्टम एक ही जगह पर  दिखाया गया है। फॉरेंसिक रिपोर्ट तैयार करने वाला अधिकारी ही  पोस्टमार्टम भी करता दिखता है
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इस बात से मृतक की पत्नी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि अंतिम संस्कार के लिए बॉडी कब मिलेगी। वह घर पर आती हैं और आराम में अपने दिनचर्या में व्यस्त हो जाती है। पति का अंतिम संस्कार अभी नहीं हुआ और वह इत्मीनान से घर में एक्सरसाइज कर रही है। निर्देशक को लगा होगा कि इस तरह पत्नी को पेश करने से लोगों को शक होगा कि पत्नी ने ही अपने पति की हत्या करवाई होगी। यह लेखक और निर्देशक की अपनी सोच हो सकती है,लेकिन आम जीवन में ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता। शक की सुई साले पर भी घूमती है। यह फिल्म के निर्देशक का अपना नजरिया है, जिससे आम दर्शक बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखते हैं
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जहां तक फिल्म में परफार्मेंस की बात है, तो रघुवीर यादव के अलावा किसी का भी परफार्मेंस फिल्म में कुछ खास नहीं लगा। यहां तक कि रघुवीर यादव जिस कलेवर के कलाकार हैं, उसके मुताबिक फिल्म के निर्देशक उनसे काम नहीं निकाल पाए। जया भट्टाचार्य ने वरिष्ट पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई है, लेकिन एक पुलिस अधिकारी की जो गरिमा होती है, वह उनमें नजर नहीं आई। रुचा इमानदार ने सब इंस्पेक्टर की भूमिका निभाई है, इस भूमिका में वह कुछ खास नहीं जमी, लेकिन उनका स्क्रीन प्रजेंस अच्छा रहा है। अगर उनको सही मौका मिले, तो वह खुद को साबित कर सकती हैं। राजेश शर्मा तो आधी फिल्म में डेड बॉडी के रूप में ही नजर आए। इसलिए उनसे अच्छे काम की उम्मीद करना ही बेकार है। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, संकलन, बैक ग्राउंड म्यूजिक सामान्य है। फिल्म का गीत संगीत सुनकर तो माथा चकरा जाता है

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