शोध में ग्लेशियरों के पिघलने, भूजल से मीथेन गैस रिसने तथा इसके बड़े भंडार का पता लगाया गया है। शोध से पता चलता है कि आर्कटिक ग्लेशियरों के पीछे हटने और अधिक झरनों के बनने से मीथेन उत्सर्जन के बढ़ने के आसार हैं।
नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित नए शोध से पता चला है कि गर्म होते आर्कटिक के ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। बुदबुदाते भूजल से शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन निकल रही है। स्वालबार्ड में ग्लेशियरों के पिघलने से हर साल 2,000 टन से अधिक मीथेन का उत्सर्जन हो रहा है। यह नॉर्वे के सालभर में तेल और गैस ऊर्जा उद्योग से उत्पन्न मीथेन उत्सर्जन के करीब 10% के बराबर है। यह शोध कैंब्रिज विवि और नॉर्वे में स्वालबार्ड विवि के शोधकर्ताओं की अगुवाई में किया गया है।शोध में ग्लेशियरों के पिघलने, भूजल से मीथेन गैस रिसने तथा इसके बड़े भंडार का पता लगाया गया है। शोध से पता चलता है कि आर्कटिक ग्लेशियरों के पीछे हटने और अधिक झरनों के बनने से मीथेन उत्सर्जन के बढ़ने के आसार हैं। इस तरह के स्रोत आर्कटिक में बर्फ पिघलने और जमी हुई जमीन से होने वाले अन्य मीथेन उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिंग बढ़ सकती है। प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने में भी इसका बड़ा योगदान है। शोध के अनुसार ये स्रोत मीथेन उत्सर्जन का एक बड़ा स्रोत हैं जिन्हें अब तक वैश्विक अनुमानों में शामिल नहीं किया है। वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि आर्कटिक के पिघलने से निकलने वाली अतिरिक्त मीथेन मानवजनित ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा सकती है। शोधकर्ताओं ने स्वालबार्ड में सौ से अधिक झरनों के जल रसायन की लगभग तीन साल तक निगरानी की, जहां हवा का तापमान आर्कटिक के औसत से दो गुना तेजी से बढ़ रहा है।
झरनों को पहचानना नहीं होता आसान
शोधकर्ताओं द्वारा पहचाने गए मीथेन निकलने वाले झरनों को अधिकांश ग्लेशियरों के नीचे छिपी एक पाइपलाइन प्रणाली द्वारा पाला जाता है, जो इसे अंदर के तलछट और आसपास के आधार के भीतर बड़े भूजल भंडार में प्रवेश करता है। एक बार जब ग्लेशियर पिघलते हैं और पीछे हटते हैं तो झरने बनते हैं, जहां यह भूजल नेटवर्क सतह तक पहुंच जाता है। ग्लेशियरों के पिघलने से बने झरनों को पहचानना हमेशा आसान नहीं होता, इसलिए शोधकर्ताओं ने उन्हें पहचानने के लिए उपग्रह चित्रों की मदद ली।