सोमवार से शक्ति पूजा के लिए शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो रहा है। प्रथम दिन देवी दुर्गा के प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री की पूजा होगी। मां दुर्गा अपने पहले स्वरूप में ‘शैलपुत्री’ के नाम से जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा था।
वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। ये ही नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। अपने पूर्वजन्म मे ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम ‘सती’ था। इनका विवाह भगवान् शंकर जी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सभी देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने का लिये निमन्त्रित किया, किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में नहीं बुलाया। सती को जब जानकारी मिली कि हमारे पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बतायी। शंकर जी ने काफी विचार मंथन के बाद उनसे कहा, ‘‘प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमको जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।’’
भगवान शंकर के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। अंततः उनका प्रबल आग्रह देख शंकर जी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
पिता के घर पहुंचकर सती ने अनुभव किया कि वहां कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात तक नहीं कर रहा है। सारे लोग मुंह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां चतुर्दिक भगवान् शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से सन्तप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान् शंकर की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वह अपने पति भगवान् शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। बज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीं हैमवती स्वरूप से मां ने देवताओं का गर्व-भंजन किया था। ‘शैलपुत्री’ देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्त्व और शक्तियां अनन्त हैं। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्रमें स्थिर करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारम्भ होता है।
देवी का मंत्र-
‘‘वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनींम्।।’’